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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा ४ शरीर कहलाता है । वह किन्हीं - किन्हीं नियंच और मनुष्यों को होता है । क्योंकि सभी तिर्यंचों व मनुष्यों को विक्रियालब्धि नहीं होती है । उक्त वैक्रियशरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है, तब तक उसको वैक्रियमिश्र कहते हैं । अर्थात् वैक्रियशरीर की उत्पत्ति के प्रारम्भिक समय से लगाकर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपूर्ण शरीर को वैक्रियमिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को वैक्रियमिश्र काययोग कहते हैं । " क्रियमिश्र देवों और नारकों को अपर्याप्त अवस्था में होता है और मनुष्य, तियंच जब वैक्रियशरीर की विकुर्वणा करते हैं, तब उसके प्रारम्भ काल और त्याग काल में होता है । आहारक काययोग - तीर्थंकर भगवान् की ऋद्धि के दर्शन करने अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी विशिष्ट प्रयोजन के उपस्थित होने पर, जैसे कि प्राणिदया, सूक्ष्म पदार्थों का निर्णय करने में शंका उत्पन्न होने पर उसका निर्णय करने के लिए समीप ( भरत - ऐरवत क्षेत्र) में केवली भगवान् का संयोग न मिलने से संशय को दूर करने के लिए महाविदेहक्ष ेत्र में औदारिकशरीर से जाना शक्य न होने पर विशिष्ट लब्धि के वश चतुर्दशपूर्वधारी संयत के द्वारा आहारकवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके जो निर्मित किया जाता है, उसे आहारकशरीर कहते हैं । १ वेगुव्विय उ तत्थं विजाणमिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो वेगुव्वियमिस्स जोगो सो ॥ — गोम्मटसार, जीवकांड गाथा २३३ वैक्रियमिश्र देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां नरतिरश्चां वा वैक्रियस्य प्रारम्भकाले परित्यागकाले वा क्वचित् । -- पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पृ. ५ २ पाणिदयरिद्धिदंसणसुहुमपयत्थावगहण हेउं वाः । संसयवोच्छेयत्थ गमण जिणपायमूलम्मि ॥१॥ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only (क्रमश:) www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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