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पंचसंग्रह
तथापि शुद्ध भेदों की व्याख्या किये बिना मिश्र भेदों को समझना सम्भव नहीं होने से प्रथम शुद्ध वैक्रिय काययोग आदि तीनों की व्याख्या करते हैं—
वैक्रिय काययोग — अनेक प्रकार की अथवा विशिष्ट क्रिया को विक्रिया कहते हैं और उसको करने वाला शरीर वैक्रियशरीर कहलाता है ।' अर्थात विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन हो उसे वैक्रियशरीर कहते हैं । जिसको इस प्रकार समझना चाहिए कि यह शरीर एक होकर भी अनेक हो सकता है, आकाशगामी होकर भी भूमि पर चलता है, जमीन पर चलने वाला होकर भी आकाशचारी होता है, दृश्य होकर भी अदृश्य होता है और अदृश्य होकर भी दृश्य हो सकता है । इस प्रकार की विविध क्रियायें इस शरीर के द्वारा शक्य होने से यह शरीर वैक्रिय कहलाता है और वैक्रियशरीर के द्वारा होने वाले योग को यानी वैक्रियशरीर के अवलम्बन से उत्पन्न परिस्पन्द द्वारा होने वाले प्रयत्न को वैक्रिय काययोग कहते हैं ।
वैक्रियशरीर के दो प्रकार हैं- ( १ ) औपपातिक और (२) लब्धिप्रत्ययिक । ३ इनमें से उपपात - देव, नारकों का जन्म - जिसमें कारण हो उसे औपपातिक कहते हैं । औपपातिक तो जन्म के निमित्त से निश्चित रूप से होता है । यह उपपातजन्य वैक्रियशरीर देव और नारकों का होता है और लब्धि - शक्ति, तदनुकूल वीर्यान्तरायकर्म का क्षयोपशम जिसमें प्रत्यय - कारण हो, वह लब्धिप्रत्ययिक वैक्रिय
१ विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् ।
२ तिस्से भवं च णेयं वेगुव्वियकायजोगो सो ।
३ वैकियमोपपातिकं । लब्धिप्रत्ययं च । ४ नारकदेवानामुपपातः ।
— पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पृ. ५
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- गोम्मटसार, जीवकांड गा. २३१ - तत्त्वार्थ सूत्र २/४६, ४७ - तत्त्वार्थ सूत्र २/३५
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