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________________ १. योगोपयोगमार्गणा योग के भेद __ उद्देश्य के अनुसार निर्देश-प्रतिपादन किया जाता है-- इस न्याय से सर्वप्रथम पहले अर्थाधिकार योगोपयोगमार्गणा का कथन प्रारम्भ करते हैं । योग-उपयोग में पहला योग है। योग का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। अतः अब योग के भेद और उनका स्वरूप बतलाते हैं सच्चमसच्चं उभयं असच्चमोसं मणोवई अठ्ठ । वेउव्वाहारोरालमिस्ससद्धाणि कम्मयगं ॥४॥ शब्दार्थ-सच्चमसच्च-सत्य, असत्य, उभयं-उभय-मिश्र, असच्चमोसं- असत्यामृषा, मणोवई-मन, और वचन, अट्ठ-आठ, वेउब्वाहारोराल -वैक्रिय, आहारक और औदारिक, मिस्ससुद्धाणि-मिश्र और शुद्ध, कम्मयगं-कर्मजक-कार्मण। गाथार्थ-सत्य, असत्य, उभय-मिश्र और असत्यामृषा इस प्रकार मन और वचन के चार-चार प्रकार होने से कुल आठ तथा वैक्रिय, आहारक, औदारिक ये तीन मिश्र एवं शुद्ध तथा कार्मण (इस प्रकार काययोग के सात भेद हैं, इनको मिलाने पर योग के कुल पन्द्रह भेद होते हैं। विशेषार्थ-योग के पन्द्रह भेदों के नाम गाथा में बतलाये हैं। ये भेद संसारी जीव के ग्रहण आदि के साधनभूत मन, वचन और काय के अवलंबन से होते हैं। अतः उनकी अपेक्षा योग के पन्द्रह भेद हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है यद्यपि मन, वचन और काय के पुद्गलों के अवलंबन से उत्पन्न हुए जीव के वीर्य-व्यापार को योग कहते हैं और वही वीर्य-व्यापार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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