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________________ पंचसंग्रह णाम अथवा प्रदेश-परिस्पन्द रूप प्रणियोग होता है, वह योग कहलाता है। अथवा जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है, वह योग है। अथवा मन, वचन और काय के व्यापार प्रवृत्ति अर्थात् हलन-चलन को योग कहते हैं। अथवा पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है, उस को योग कहते हैं । योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, सामर्थ्य, चित्त, यह सब योग के पर्यायवाची अपर नाम हैं । ५ यह योगशक्ति समस्त जीवों में पाई जाती है और वह वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय एवं सर्वक्षय से उत्पन्न होती है। देशक्षय से छद्मस्थसंसारी जीवों में और सर्वक्षय से सयोगि-अयोगि केवली, मुक्त जीवों में १ मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो। जीवस्सप्पणिओगो जोगो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठी ।। -दि. पंचसंग्रह १/८८ २ जीव पदेसाण परिप्फदो संकोचविकोचब्भमणसरूवओ। -धवला १०/४, २, ४, १७५/४३७ ३ कायवाङ मनःकर्म योगः । -तत्त्वार्थसूत्र ६/१ ४ पुग्गलविवाईदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागम कारणंजोगो । --गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा २१६ ५ जोगो विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चिटठा । सत्ती सामत्थं चिय जोगस्स हवंति पज्जया ॥ - कर्मप्रकृति, पृ० १८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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