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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा ३ उक्त पांच अर्थाधिकारों के क्रमविन्यास पर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है कि प्रश्न - - यह कैसा अर्थाधिकारों का क्रमविधान है ? यह विधान तो युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि सभी क्रियायें कर्ता के अधीन होने से सर्वप्रथम बन्धक, तत्पश्चात् योगोपयोग, अनन्तर बन्धव्य और उसके बाद क्रमशः बन्धहेतु और बन्धविधि का विधान करना चाहिये था । उत्तर - अभिप्राय को न समझने के कारण उक्त प्रश्न असंगत है । क्योंकि योग और उपयोग जीव के असाधारण गुण हैं और अविनाभावी होने से उनके द्वारा अतीन्द्रिय आत्मा का सरलता से बोध हो जाता है तथा दूसरी बात यह है कि छद्मस्थ जीव प्रायः गुण से गुणी को जानते हैं, न कि साक्षात् । अतः उक्त दोनों अर्थों का बोध कराने के लिए सबसे पहले योग- उपयोग का उपन्यास किया है और उसके पश्चात् बन्धक आदि का विन्यास किया है । पंच अर्थाधिकारों के लक्षण पूर्व में पांच अधिकारों के वर्ण्य विषयों का संक्षेप में संकेत किया है । अब उन्हीं को कुछ विशेष रूप में स्पष्ट करते हैं । प्रथम अर्थाधिकार का नाम 'योगोपयोगमार्गणा ' है । इसमें योग और उपयोग की मार्गणा - विचारणा - विवेचना की जायेगी । अतः सर्वप्रथम योग और उपयोग का स्वरूप बतलाते हैं । योग - अर्थात् जीव की वीर्यशक्ति अथवा जीव का वीर्य परिस्पन्द (परिणाम), जिसके द्वारा दौड़ना, कूदना आदि अनेक क्रियाओं में जीव संबद्ध हो प्रवृत्ति करे उसे योग कहते हैं । " अथवा मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य परि १ ११ योजनं योगो जीवस्य वीर्यपरिस्पद इत्यर्थः यद् वा युज्यते संबद्ध्यते धावनवल्गनादिक्रियासु जीवोऽनेनेति योगः । - पंचसंग्रह, मलयगिरि टीका पृ० ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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