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________________ पंचसंग्रह वाले नहीं हो सकते हैं। इसीलिए 'जिन' और 'दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापक यह दोनों सार्थक विशेषण हैं और दोनों पृथक-पृथक् दो विशेषताओं का बोध कराते हैं। यह विशेषतायें साक्षात् रूप से वीर जिनेश्वर में प्राप्त हैं । अन्यत्र सम्भव नहीं होने से 'सम्म'-सम्यक् प्रकार से-विधिपूर्वक उनको 'नमिऊण'-नमस्कार करके आचार्य अपने ग्रन्थरचना रूप कार्य में प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार गाथागत पूर्वाध के मुख्य पदों की सार्थकता बतलाने के बाद उत्तरार्ध की व्याख्या करते हैं कि 'वोच्छामि पंचसंगह'-पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ का विवेचन करूंगा, कहूँगा। यद्यपि यह ग्रन्थ संग्रह रूप है तथापि 'महत्थं'-'महार्थम्' गम्भीर अर्थ वाला है। संग्रहात्मक होने पर भी इसके अर्थगांभीर्य में किचिन्मात्र भी न्यूनता नहीं है। इसके साथ हो 'जहत्थं'-'यथार्थम्' जिनप्रवचन से अविरोधी अर्थ वाला है। ग्रन्थरचना का प्रयोजन __ स्व-इष्ट की सिद्धि को प्रयोजन कहते हैं। प्रयोजन के दो प्रकार हैं-१. अनन्तर (साक्षात्)-प्रयोजन और २. परम्पर-प्रयोजन । श्रोता की अपेक्षा ग्रन्थ के विषय का ज्ञान होना और कर्ता की अपेक्षा परोपकार अनन्तरप्रयोजन है तथा कर्म का स्वरूप समझकर कर्मक्षय के लिए प्रवृत्त होकर मोक्ष प्राप्त करना कर्ता और श्रोता का परम्परप्रयोजन है। इस प्रकार सामान्य से ग्रन्थ के महत्व को प्रदर्शित करने के। पश्चात् अब ग्रन्थकार ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हैं । अन्य के नामकरण को दृष्टि ग्रन्थ को प्रारम्भ करने के प्रसंग में सर्वप्रथम ग्रन्थ के नामकरण के । कारण को स्पष्ट करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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