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योगोपयोगमार्गणा : गाथा २
सयगाइ पंच गंया जहारिहं जेण एत्थ सखिता । दाराणि पंच अहवा, तेण जहत्थाभिहागमिणं ॥ २ ॥
शब्दार्थ — सयगाइ — शतकादि, पंच-पांच, गंथा— ग्रन्थ, जहारिहंयथायोग्य रीति से, जेण -- जिस कारण, एत्थ - यहाँ, संखित्ता संक्षिप्त करके, दाराणि - - द्वार, पंच-पांच अहवा- -अथवा, तेण - उससे, जहत्था - भिहाणं - यथार्थ नामवाला, इणं - यह ।
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गाथार्थ - यथायोग्य रीति से जिस कारण शतक आदि पांच ग्रन्थों का अथवा पांच द्वारों का यहाँ संक्षिप्त रूप में संग्रह किया गया है, उससे इस ग्रन्थ का 'पंचसंग्रह ' यह सार्थक नाम है । विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थ के सार्थक नामकरण के कारण को स्पष्ट किया है कि इसमें शतक आदि पांच ग्रन्थों का सारांश संकलित किया गया है। उन ग्रन्थों के नाम हैं
१. शतक, २. सप्ततिका, ३. कषायप्राभृत, ४. सत्कर्म और ५. कर्मप्रकृति ।
इन पांच ग्रन्थों का संक्षेप में संग्रह किये जाने से 'पंचसंग्रह' यह सार्थक नाम है ।
अथवा नामकरण का दूसरा कारण यह है कि इसके वर्णन के पांच अर्थाधिकार हैं । इन अर्थाधिकारों में अपने-अपने अधिकृत विषय का यथायोग्य रीति से विवेचन किया जायेगा । इस अपेक्षा से भी इस प्रकरण का 'पंचसंग्रह' यह नाम सार्थक है ।
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इन ग्रंथों के नामों का उल्लेख आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है । इन नामों वाले ग्रंथ तो आज भी उपलब्ध हैं, लेकिन ये वही ग्रंथ हैं, जिनका यहाँ उल्लेख है, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रंथकार के समय में कोई प्राचीनतम ग्रंथ रहे होंगे जो उपलब्ध ग्रंथों से भी अधिक गम्भीर अर्थ वाले रहे होंगे और उन्हीं का सारांश पंचसंग्रह में संकलित है ।
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