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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा १ पदों में से एक पद ही पर्याप्त है । क्योंकि जब तीनों पदों का समान अर्थ है तो फिर उन तीनों पदों को देने की क्या उपयोगिता है ? शाब्दिक अन्तर के सिवाय उनमें अन्य कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती है। तो इसका समाधान यह है कि 'नत्वा जिनं' इतना पद देने पर यथासम्भव रागादि शत्रुओं के विजेता, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी आदि को भी जिन कहा जा सकता है । क्योंकि वे जिन तो हैं लेकिन साक्षात् जिन नहीं हैं । अतः उनका निषेध करने के लिए 'वीरें' पद दिया । वीर भी अनेक प्रकार के हो सकते हैं । जैसे कि लोकप्रसिद्ध कार्यों में सफलता प्राप्त करने वालों को भी वीर कहा जाता है, अथवा कोई नाम से भी वीर होता है अर्थात् किसी का नाम भी वीर होता है । अतः इन लोकप्रसिद्ध वीरों और नामतः वीरों का निराकरण करने के लिए विशेषण दिया 'दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापक' । जो अष्ट कर्मों का नाश करने वाला है, वही यथार्थ जिन और वीर है । इसीलिए एक दूसरे की विशेषता बतलाने वाले होने से मंगलाचरण में तीन पद सार्थक हैं तथा इन तीनों पदों से मंगलकर्ता आचार्यदेव ने आत्मा की चरमशुद्ध स्थिति कैसे प्राप्त होती है, इसका भी संकेत किया है । प्रश्न- 'दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापकं' और 'जिनं' यह दोनों पद तो समानार्थक विशेषण हैं। क्योंकि दुष्ट अष्ट कर्म को नष्ट करने वाला ही जिन कहलाता है । इसी अर्थ को स्वयं आपने स्वीकार किया है । अतः दोनों में से कोई एक विशेषणपद देना चाहिए था । उत्तर – संसारमोचक आदि कितने ही परमतावलंबियों का मंतव्य है कि हिंसा, मैथुन आदि राग-द्वेष को बढ़ाने वाले पाप कार्यों से दुष्ट अष्टकर्मों का नाश होता है । अतः ऐसी विपरीत प्ररूपणा करने वाले उन संसारमोचकादि का निषेध करने के लिए 'जिन' विशेषण दिया है। 'जिन' ही राग-द्व ेष आदि आत्मशत्रुओं के नाश करने वाले होने से अष्ट कर्मों का विनाश करने वाले हैं । अन्य कोई जिन - जीतने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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