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________________ पंचसंग्रह के अपुनर्भावेन जो मोक्ष में चले गये हैं, जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है, उन्हें वीर कहते हैं । अथवा विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर इतिस्मृतः ॥ अर्थात् जो कर्मों का विदारण करते हैं और तप से विराजितशोभित हैं, तपोवीर्य से युक्त हैं, उन्हें वीर कहते हैं । अथवा 'वि -- विशिष्टां, ई- लक्ष्मी, र-राति ददाति आत्मीयत्वेन ग्रहणातीति वा वीरः ।' अथवा 'वि- विशेषेण, अनन्त ज्ञानादि आत्मगुणान्, इर् - ईरयति प्रापयति वा वीरः, अर्थात् अनन्तज्ञानन-दर्शन और आत्मा के असाधारण गुणों रूपी लक्ष्मी को जो प्राप्त करने वाले हैं और दूसरों को भी इन्हीं की प्राप्ति में समर्थ सहयोगी बन सकते हैं, वे वीर कहलाते हैं । वुट्ठट्ठकम्मनिट्ठवगं (दुष्टाष्टकर्म निष्ठापकं ) - दुष्टानामष्टानां कर्मणां निष्ठापको विनाशकस्तं' - अर्थात् संसार के कारणभूत अत्यन्त दुद्धर्ष राग-द्वेष आदि भावकर्मों और उनके कार्यभूत ज्ञानावरण आदि अष्ट द्रव्यकर्मों का विनाश करने वाले दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापक ( विनाशक) कहलाते हैं । उक्त विशेषणों की व्याख्या का सारांश यह है कि ग्रन्थकार आचार्य ने संसार के कारणभूत कर्मपाश का निःशेष रूप से भेदन करने वाले, जन्म-जरा-मरण आदि रूप भयों का विनाश करने वाले, भव्यजनों के हृदयकमल को विकसित करने वाले और प्रबल उपसर्गपरीषहों के उपस्थित होने पर मेरुवत् अचल अडिग रहने वाले होने से वीर जिनेश्वर को नमस्कार किया है । पदसार्थक्य कदाचित् यह कहा जाये कि विघ्नोपशमन के लिये किये गये मंगलाचरण में 'जिणं' 'वीरं' और 'दुट्ठट्ठकम्मनिट्ठवगं' इन तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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