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________________ योगोपयोगमार्गणा : गाथा १ पुरुषार्थ से राग-द्रष मोह आदि कर्मबन्ध के कारणों पर विजय प्राप्त करके सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति प्राप्त कर ली है । इसी कारण उनको यहाँ नमस्कार किया है । ५ इसके साथ ही ग्रन्थकार ने कर्मविमुक्ति के उपाय और आदर्श को यथार्थ रूप में अवतरित करने वाले वीर जिनेश्वरदेव को नमस्कार करने के द्वारा प्रत्येक संसारी जीव को बोध कराया है कि जब तक राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्मों और ज्ञानावरणादि अष्ट द्रव्यकर्मों के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, तब तक जन्म-मरण आदि रूप दुःखों को भोगना ही पड़ेगा । मंगलाचरणात्मक पदों की व्याख्या इस प्रकार है 'जिणं' (जिनं ) - रागादिशत्रुजेतृत्वाज्जिनस्तं' – यह जिन शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या है । अर्थात् स्व-स्वरूपोपलब्धि में बाधक रागद्वेष-मोह काम-क्रोध आदि अन्तरंग शत्रुओं और ज्ञानावरणादि अष्ट द्रव्यकर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले जिन कहलाते हैं । वीरं - 'वीर्' धातु पराक्रम के अर्थ में प्रयुक्त होती है । अतः 'वीरयतिस्म वीरः' अर्थात् कषाय आदि अन्तरंग और उपसर्ग, परीषह आदि बाह्य शत्रुसमूह को जीतने में जिन्होंने पराक्रम किया है, वे वीर हैं । , अथवा 'ईर' गतिप्र ेरणयो:, अतः 'वि विशेषेण ईरयति, गमयति, स्फेटयति कर्म, प्रापयति वा शिवं प्रेरयति शिवाभिमुखमितिवा वीरः' - ईर् धातु गति और प्रेरणार्थक है, इसलिए विशेष प्रकार से जो कर्म को दूर करते हैं, अन्य भव्य आत्माओं को मोक्ष प्राप्त कराते हैं अथवा जो मोक्ष के सन्मुख होने की प्र ेरणा देते हैं, वे वीर कहलाते हैं । अथवा 'ईरि गतौ' - 'वि विशेषेण अपुनर्भावेन ईर्त्ते स्म याति स्म शिवमिति वीर : ' - अर्थात् 'वि' उपसर्गपूर्वक गत्यर्थक 'ईरि' धातु से वोर शब्द निष्पन्न हुआ है । अतः पुनः संसार में न आना पड़े, इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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