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पंचसंग्रह
मूल्यांकन एवं प्राप्त सफलता से उत्पन्न अभिमान-वत्ति के उपशमन के लिये और अन्तमंगल स्व की तरह इतर जिज्ञासुजनों को अभीप्सित कार्य में सफलता प्राप्त कराने के लिए किया जाता है।
प्रस्तुत गाथा आदिमंगल रूप है और मध्य एवं अन्त मंगल यथास्थान प्रस्तुत किये जायेंगे। मंगलाचरणात्मक पदों की व्याख्या . सामान्यतया हम सभी अपने से बड़ों की विनय, सम्मान और नमस्कार करने की परम्परा का अनुसरण करते हैं। ऐसा करना मंगलकारी भी है और साथ ही ऐसा करने पर हृदय में हर्ष एवं उल्लास की अनुभूति होती है। लेकिन यथार्थ विनय, नमस्कार वही है कि जिससे उन महापुरुषों के अनुरूप बनने की स्फूर्ति व प्रेरणा प्राप्त हो। - गाथा का पूर्वार्ध मंगलाचरणात्मक है । ग्रन्थकार आचार्य ने उसमें इसी प्रकार का सार्थक नमस्कार किया है। साथ ही वीर जिनेश्वर को नमस्कार करने के कारण का भी संकेत किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है. 'जिणं', 'वीर' और 'दुट्टकम्मनिट्टवर्ग' इन तीनों पदों में से 'वीर' शब्द श्रमण भगवान् महावीर के नाम का द्योतक होने के साथ-साथ उनकी विशेषता बतलाने वाला भी है और शेष दो शब्द विशेषण रूप हैं।
जीव के संसारभ्रमण का कारण कर्म है। जब तक जीव और कर्म का संयोग बना रहेगा, तब तक जीव किसी न किसी योनि का शरीर धारण करते हुए संसार में परिभ्रमण करता रहेगा और शारीरिक क्षमता एवं शक्ति की तरतमता के कारण आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकेगा । लेकिन भगवान् महावीर ने संसार के कारणभूत दुष्ट अष्ट कर्मों का निःशेष रूप से नाश कर दिया है । स्व
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