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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ १४६ इस बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करने के लिए मोहनीयकर्म का क्षय होना जरूरी है और क्षय करने के लिए क्षपकश्रेणी' की जाती है। इस बारहवें गणस्थान के नाम में क्षीणकषाय, वीतराग और छद्मस्थ ये तीनों व्यावर्तक विशेषण हैं। क्योंकि क्षीणकषाय इस विशेषण के अभाव में वीतरागछद्मस्थ इतने नाम से ग्यारहवें गुणस्थान का भी बोध होता है । क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय क्षीण नहीं किन्तु उपशांत होते हैं और वीतराग इस विशेषण से रहित क्षीणकषायछद्मस्थगुणस्थान इतने नाम से बारहवें के सिवाय चतुर्थ आदि गुणस्थानों का बोध हो जाता है । क्योंकि उन गुणस्थानों में भी अनन्तानुबंधी आदि कषायों का क्षय हो सकता है। लेकिन वीतराग इस विशेषण के होने से उन चतुर्थ आदि गुणस्थानों का बोध नहीं होता है। क्योंकि किसी न किसी अंश में राग का उदय उन गुणस्थानों में है, जिससे वीतरागत्व असंभव है । इसी प्रकार छद्मस्थ इस विशेषण के न रहने से भी क्षीणकषायवीतराग इतना नाम बारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान का भी बोधक हो जाता है। परन्तु छद्मस्थ इस विशेषण के रहने से बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है। क्योंकि तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान जीव के छद्म (घातिकर्म का आवरण) नहीं रहता है । इसीलिए उन सब विशेषताओं को ग्रहण करने के लिए बारहवें गुणस्थान का क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ यह नामकरण किया गया है। १३. सयोगिकेवलीगुणस्थान-योग अर्थात् वीर्य - परिस्पंद । अतः मन, वचन और काया के द्वारा जिनके वीर्य की प्रवृत्ति होती हो, उन्हें सयोगि कहते हैं । अर्थात् जो चार घनघातिकर्मों (ज्ञाना १. क्षपकणि का वर्णन उपशमनाकरण में किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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