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________________ १५० पंचसंग्रह (१) वरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ) का क्षय करके केवल - ज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर चुके हैं तथा पदार्थ को जानने-देखने में इन्द्रिय, आलोक आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं और योग सहित हैं, उन्हें सयोगिकेवली कहते हैं और उनका स्वरूपविशेष सयोगिकेवलीगुणस्थान कहलाता है । इस गुणस्थान का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । १४. अयोगिकेवली गुणस्थान- जो केवली भगवान योगों से रहित हैं, वे अयोगिकेवली कहलाते हैं । अर्थात् जब सयोगिकेवली मन, वचन और काया के योगों का निरोध कर योगरहित होकर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अयोगिकेवली कहलाते हैं और उनके स्वरूपविशेष को अयोगिकेवलीगुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में मोक्ष प्राप्त करने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है और तीनों योगों का निरोध करने से अयोगि अवस्था प्राप्त होती है । सयोगि अवस्था में तो केवली भगवान अपनी आयुस्थिति के अनुसार रहते हैं, लेकिन जिन सयोगिकेवली भगवान के चार अघातिकर्मों में से आयुकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणु की अपेक्षा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति और पुद्गलपरिमाणु अधिक होते हैं, वे समुद्घात करते हैं और इसके द्वारा वे वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं को आयुकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं के बराबर कर लेते हैं । परन्तु जिन केवली भगवान के वेदनीय १ तत्र सम्यग्—अपुनर्भावेन उत्- प्राबल्येन वेदनीयादिकर्मणां हननं - घातः प्रलयो यस्मिन् प्रयत्नविशेषे स समुद्घातः । जिस प्रयत्नविशेष में सम्यक् प्रकार से अथवा प्रमुख रूप से वेदनीय आदि कर्मों का क्षय किया जाता है, उसे समुद्घात कहते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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