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________________ १४८ पंचसंग्रह (१) पा सकता है जो क्षपकश्रेणि को करता है और क्षपकश्रेणि के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। किन्तु इस गुणस्थान वाला जीव नियम से उपशमश्रेणि को करने वाला होता है । अतएव वह इस गुणस्थान से अवश्य गिरता है। यदि गुणस्थान का समय पूरा न होने पर जो जीव भवक्षय से गिरता है तो अनुत्तरविमान में देवरूप से उत्पन्न होता है और वहाँ व्रत आदि धारण करना संभव न होने से चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान को ही प्राप्त करता है और तब वह उस गुणस्थान के योग्य कर्मप्रकृतियों के बंध, उदय, उदीरणा को प्रारम्भ कर देता है। परन्तु आयु के शेष रहते इस गुणस्थान से गिरता है तो पतन के समय आरोहण के क्रम के अनुसार गुणस्थान को प्राप्त करता है और उस-उस गुणस्थान के योग्य सर्व कर्मप्रकृतियों का बंध, उदय, उदीरणा करना प्रारम्भ कर देता है और यह गिरने वाला कोई जीव छठे गुणस्थान को, कोई पांचवें गुणस्थान को, कोई चौथे गुणस्थान को और कोई दूसरे गुणस्थान को प्राप्त करते हुए पहले गुणस्थान तक आ जाता है । ग्यारहवें गुणस्थान की कालमर्यादा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। १२. क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान-सर्वथा प्रकार से कषाय जिनके नष्ट हुए हैं, उनको क्षीणकषाय कहते हैं। अर्थात् जो मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय कर चुके हैं, किन्तु शेष छद्म (घातिकर्म का आवरण) अभी विद्यमान है, उनको क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ कहते है और उनका स्वरूपविशेष क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान कहलाता है । इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और इसमें वर्तमान जीव क्षपकश्रेणि वाले ही होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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