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________________ योगोपयोगमार्गणा अधिकार : गाथा १६-१८ १४७ वाले जीवों को छद्मस्थ कहते हैं । दसवें गुणस्थान तक के छद्मस्थ रागी भी होते हैं, उनसे अलग करने के लिए वीतराग विशेषण दिया है। माया और लोभ कषाय का उदयरूप राग और उपलक्षण से क्रोध और मान का उदयरूप द्वष भी जिनका दूर हो गया है, उन्हें वीतराग कहते हैं। यहाँ वीतरागछद्मस्थ का ग्रहण है किन्तु दसवें गुणस्थान तक के रागी छद्मस्थ का नहीं। वीतरागछद्मस्थ बारहवें गुणस्थान वाली आत्माएँ भी होती हैं, अतः उनसे पृथक् करने के लिए उपशान्तकषाय विशेषण दिया है। उपशांतकषाय अर्थात् जिन्होंने कषायों को सर्वथा उपशमित किया यानी कषायों की सत्ता होने पर भी उनकी इस प्रकार की स्थिति बना दी है कि जिनमें संक्रमण और उद्वर्तनादि करण एवं विपाकोदय या प्रदेशोदय कुछ भी नहीं हो सकते हैं । मोहनीयकर्म का जिन्होंने सर्वथा उपशम किया है, ऐसे वीतराग का यहाँ ग्रहण किये जाने से बारहवें गुणस्यान वाली आत्माओं से पृथक्करण हो जाता है । क्योंकि उन्होंने तो मोह का सर्वथा क्षय किया है । अतः उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थ आत्मा का जो गुणस्थानस्व-रूपविशेष वह उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान कहलाता है। इस कथन का सारांश यह है कि जिनके कषाय उपशांत हुए हैं, राग का भी सर्वथा उदय नहीं और राग के उपलक्षण से द्वष का ग्रहण हो जाने से उसका भी सर्वथा उदय नहीं है और जिनके अभी छद्म (आवरणभूत घातिकर्म) लगे हुए हैं, वे जीव उपशांत कषायवीतरागछद्मस्थ कहलाते हैं और उनके स्वरूपविशेष को उपशांतकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान कहते हैं । __ शरद् ऋतु में होने वाले सरोवर के जल की तरह मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणाम इस गुणस्थान वाले जीव के होते हैं । इस गुणस्थान में विद्यमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं। क्योंकि आगे के गुणस्थान वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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