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तत्पश्चात् इनकी जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान के क्रम से मार्गणागवेषणा की है। इसी सन्दर्भ में जीवस्थानों आदि के भेदों की विस्तृत व्याख्या की है।
इस दृष्टि से इस प्रकरण के मुख्य तीन विभाग हैं -(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान और (३) गुणस्थान, जिनमें संसारी जीवों की आन्तरिक और बाह्य सभी स्थितियों का विवरण स्पष्ट हो जाता है। जीवस्थान शारीरिक विकास और इन्द्रियों की न्यूनाधिकता के बोधक हैं । मार्गणास्थान में जीव की स्वाभाविक-वैभाविक दशाओं का वर्णन है तथा गुणस्थान आत्मा के उत्तरोत्तर विकास की दर्शक भूमिकायें हैं। जीवस्थान कर्मजन्य होने से हेय ही हैं और मार्गणास्थानों में जो अस्वाभाविक हैं, वे भी हेय हैं, किन्तु गुणस्थान विकास की श्रेणियां होने से ज्ञय एवं उपादेय हैं । इनके द्वारा यह ज्ञात होता है कि इस स्थिति में वर्तमान जीव ने विकास की किस भूमिका पर आरोहण कर लिया है और विकासोन्मुखी आत्मा आगे किस अवस्था को प्राप्त करने में समर्थ होगी।
जीवस्थानों आदि में अमुक योग और उपयोग क्यों होते हैं ? इस प्रश्न का सयुक्तिक समाधान किया है । इसके सिवाय यथाप्रसंग विषय से सम्बन्धित मतान्तरों का भी उल्लेख किया गया है। जिनमें से कतिपय सैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक हैं और कुछ का अन्य आचार्यों से सम्बन्ध है। इसके साथ ही मार्गणास्थान के बासठ भेदों में चौदह जीवस्थानों तथा गुणस्थानों की सम्भवता का अन्वेषण कर अधिकार को समाप्त किया है।
गाथानुसार उक्त वर्णन का क्रम इस प्रकार है-गाथा ६ से ८ तक चौदह जीवस्थानों में योगों और उपयोगों का, गाथा ६ से १५ तक बासठ मार्गणा भेदों में योगों और उपयोगों का, तत्पश्चात् गाथा १६ से २० तक गुणस्थानों में योगों और उपयोगों का विचार करके गाथा २१ से ३४ तक बासठ मार्गणास्थानो में सम्भव जीवस्थानों तथा गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। अन्त में अधिकार समाप्ति का और द्वितीय बंधक अधिकार का विवेचन प्रारम्भ करने का संकेत किया है।
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