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( १४ ) हेतु, (५) बंधविधि, इन पांच द्वारों का वर्णन किये जाने से ग्रंथ का 'पंचसंग्रह' यह सार्थक नामकरण किया है। ग्रंथ में जिन पांच ग्रंथों अथवा प्रकरणों का संग्रह है, उनमें से एकाध को छोड़कर प्रायः सभी ग्रंथों, प्रकरणों के रचयिताओं के नामादि अभी तक अज्ञात हैं ।
दिगम्बर जैन साहित्य-परम्परा में भी पंचसंग्रह नाम वाले निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं
(१) प्राकृत पंचसंग्रह, (२) संस्कृत पंचसंग्रह (प्रथम), (३) संस्कृत पंचसंग्रह (द्वितीय), (४) प्राकृत पंचसंग्रह टीका, (५) प्राकृत पंचसंग्रह मूल और प्राकृत वृत्ति । इनमें से प्रथम ग्रंथ के कर्ता का नाम अभी तक अज्ञात है। शेष के क्रमशः कर्ता आचार्य अमितगति, श्रीपाल सुत श्री डड्ढा, श्री सुमतिकीति और श्री पद्मनन्दि हैं।
इन सभी में कर्मसिद्धान्त के आधारभूत बंध, बंधक आदि विषयों का वर्णन किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि दोनों जैन परम्पराओं के आचार्यों ने अपने समय में उपलब्ध कषायप्राभूत आदि ग्रंथों का आधार लेकर अपने ग्रंथों की रचना की और प्राचीन ग्रंथों का सार संकलित होने से पंचसंग्रह यह नामकरण किया और स्पष्टीकरण के लिये टीका-टिप्पण एवं चूणियों को लिखा।
ग्रंथ के सम्बन्ध में उक्त संक्षिप्त संकेत पर्याप्त है। उपलब्ध समस्त पंचसंग्रह नामक ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन अनुसन्धान का विषय होने से यहाँ कुछ भी प्रकाश नहीं डाल रहे हैं और यदि एतद्विषयक कुछ उल्लेख कर भी दिया जाता तब भी ग्रंथ का गौरव वही रहता जैसा अभी है । अतएव अब योगोपयोगमार्गणा अधिकार के अधिकृत वर्णन का सारांश प्रस्तुत करते हैं । विषयप्रवेश
भूमिका के रूप में ग्रन्थकार आचार्यश्री ने मंगलमय महापुरुषों के पुण्यस्मरणपूर्वक ग्रन्थ के नाम और नामकरण के कारण को स्पष्ट करके प्रकरण के प्रतिपाद्य योग और उपयोग के स्वरूप और उनके भेदों का निर्देश किया है।
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