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इस प्रकार से भूमिकाके रूप में कर्मविषयक कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालने के पश्चात् अब ग्रन्थ का संक्षेप में परिचय प्रस्तुत करते हैं । ग्रन्थपरिचय
यह 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ कर्मसिद्धान्त विवेचक एक विशिष्ट रचना हैं। इसके रचयिता आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर हैं। आपश्री ने विलुप्त पूर्वसाहित्य का आधार लेकर इसको निबद्ध किया है । भाषा प्राकृत है तथा गाथा संख्या १००५ है तथा वर्ण्यविषय को स्पष्ट करने के लिये स्वोपज्ञवृत्ति भी स्वयं ग्रन्थकार आचार्य द्वारा लिखी गई है । जिसका प्रमाण लगभग नौ से दस हजार श्लोक है तथा आचार्य मलयगिरि ने करीब अठारह हजार श्लोकप्रमाण की संस्कृत टीका रची है।
उक्त दो वृत्तियों और मूल ग्रन्थ के प्रमाण से ग्रन्थ की गम्भीरता एवं विशालता सहज ही ज्ञात हो जाती है। आचार्यप्रवर ने इस ग्रन्थ की रचना स्व प्रशंसा, प्रख्याति के लिये नहीं, किन्तु एक लक्ष्य की पूर्ति के लिये की है। उन्होंने अनुभव किया कि उत्तरोत्तर पूर्वज्ञान के अध्येताओं के कालकवलित होते जाने से पूर्वगत वर्ण्य विषयों का खंड-खंड में विभक्त आंशिक भाग शेष रह गया है और वह भी अब शेषप्रायः होने जा रहा है। यदि इन अवशिष्ट खंडों को लिपिबद्ध कर दिया जाये तो मुमुक्षु पाठकों को लाभप्रद होगा । यही कारण है कि आचार्यप्रवर ने ग्रन्थ में कहीं भी अपने परिचय के लिये दो शब्द नहीं लिखे हैं। मात्र स्वोपज्ञवृत्ति की अन्तिम प्रशस्ति में इतना संकेत किया है- 'पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि नामक साधु द्वारा ।' ग्रंथ की विशालता को देखकर जहाँ उनके अगाध पांडित्य के प्रति प्रमोदभाव की सहस्रमुखी वृद्धि होती है, वहीं उनकी निरभिमानता एवं विनम्रता श्रद्धावनत होने के लिये प्रेरित करती है।
आचार्यश्री ने (१) शतक, (२) सप्ततिका, (३) कषायप्राभृत, (४) सत्कर्मप्राभृत और (५) कर्मप्रकृति इन पांच ग्रंथों के विषयों का संग्रह करने के साथ-साथ (१) योगोपयोगमार्गणा, (२) बंधक, (३) बंधव्य, (४) बंध
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