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________________ ( ११ ) है । उसकी इस द्विविधवृत्ति को दर्शन और ज्ञान रूप उपयोग कहा है । जीव अपने मूल स्वभाव से अमूर्त है, परन्तु दैहिकावस्था में रागद्वेषात्मक मन-वचनकाय की प्रवृत्तियों द्वारा सूक्ष्मतम पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकार के आन्तरिक संस्कारों को उत्पन्न करता है । जिन सूक्ष्मतम पुद्गल परमाणुओं को जीव ग्रहण करता है, उन्हें जैनदर्शन में कर्म कहा है । आत्मप्रदेशों में उनके आ मिलने की प्रक्रिया का नाम आस है और इस मेल के द्वारा जीव में स्वरूपविषयक जो विकृतियां आदि उत्पन्न होती हैं, उनका नाम बंध है । कर्म और उसके बंध की इसी प्रक्रिया को समझाना जैन कर्म सिद्धान्त का अभिधेय है । जैन कर्मसिद्धान्त ने क्रमबद्ध रूप से अपने अभिधेय की प्ररूपणा की है । अथ से लेकर इति तक 'उठने वाले सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान किया है । प्रत्येक प्रश्न का उत्तर सयुक्तिक है, किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं है । कुछ एक प्रश्न इस प्रकार हैं कर्म क्या है ? कर्म के साथ आत्मा का सम्बन्ध कैसे होता है ? इसके कारण क्या हैं ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न होती है ? आत्मा के साथ कर्म कम-से-कम और अधिक-से-अधिक कितने समय तक लगा रहता है ? संबद्ध कर्म कितने समय तक फल देने में असमर्थ रहते हैं ? कर्म का विपाकसमय बदला भी जा सकता है या नहीं ? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिये आत्मा के कैसे परिणाम आवश्यक हैं ? कर्म की शक्ति को तीव्रता और मंदता में रूपान्तरित करने वाले कौन-से आत्मपरिणाम कारण होते हैं ? किस कर्म का विपाक किस अवस्था तक नियत और किस अवस्था में अनियत है ? इसी प्रकार के अन्यान्य प्रश्नों का सयुक्तिक विस्तृत और विशद विवेचन जैन कर्मसिद्धान्त एवं साहित्य में किया गया है । जैन साहित्य में कर्मसिद्धान्त का जिस क्रम से निरूपण किया गया है, उससे यह मानना पड़ता है कि जैनदर्शन की विशिष्ट कर्मविद्या भगवान पार्श्वनाथ से भी पूर्व स्थिर हो चुकी थी और वह अग्रायणीयपूर्व तथा कर्मप्रवादपूर्व के नाम से विश्रुत हुई । दुर्भाग्य से पूर्व ग्रन्थ कालक्रम से विनष्ट हो गये, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001898
Book TitlePanchsangraha Part 01
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages312
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Philosophy
File Size15 MB
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