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ध्येय प्रवर्तकधर्म का खण्डन करना रहा, तब तक उनमें पारस्परिक विचारविनिमय भी होता रहा और एकवाक्यता भी बनी रही। लेकिन उसके बाद ऐसा समय आ गया जब निवर्तकवादियों में पहले जैसी निकटता नहीं रही। प्रत्येक दल अपने-अपने दृष्टिकोण एवं तत्त्वज्ञान की भूमिका के आधार से विचार करने लगा। परिणामतः परिभाषा, भाव, वर्गीकरण आदि में शद्वशः और अर्थशः बहुत कुछ साम्य होते हुए भी विभिन्नतायें बढ़ती गईं। जिनका संक्षेप में यहाँ संकेत करते हैं। ___ कर्म के बंधक कारणों और उनके उच्छेदक उपायों के बारे में तो सभी निवर्तकवादी समान रूप में गौण-मुख्य भाव से सहमत हैं, किन्तु कर्मतत्त्व के स्वरूप के बारे में मतैक्य नहीं रहा। परमाणवादी मोक्षमार्गी वैशेषिक आदि ने कर्म को चेतननिष्ठ मानकर उसे चेतनधर्म तथा प्रधानवादी सांख्य-योग ने उसे अन्तःकरण (मन) निष्ठ मानकर जड़धर्म बताया, परन्तु आत्मा और परमाणु को परिणामी मानने वाले जैन ने अपनी चिन्तनशैली के अनुसार कर्म को चेतन और जड़ उभय परिणाम से उभय रूप माना। जिसके भावकर्म और द्रव्यकर्म यह अपर नाम हैं।
इसके साथ ही अन्य निवर्तकवादी अन्यान्य विषयों के चिन्तन की ओर प्रवृत्त हो गये, लेकिन जैन चिन्तकों ने कर्मतत्त्व को अपने चिन्तन में प्रमुख एवं प्रथम स्थान दिया। कर्मसिद्धान्त जैनदर्शन का प्राण है। जैन कर्मसिद्धान्त में यह चिन्तन गम्भीरता और विस्तार से किया गया है कि विश्व के मूल तत्त्व क्या हैं और उनमें किस प्रकार के विपरिवर्तनों द्वारा प्रकृति और जीव में कैसी विषमतायें एवं विचित्रतायें उत्पन्न होती हैं। प्रकृति जड़ है और जीव चेतन, इसीलिये यह स्वीकार किया कि विश्व के मूल तत्त्व दो हैं—जीव और अजीव अथवा चेतन और जड़। निर्जीव अवस्था में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये सब एक ही जड़ तत्त्व के रूपान्तर हैं। जिसे जैनदशन में पुद्गल कहा है। आकाश और काल भी जड़तत्त्व हैं, किन्तु वे पृथ्वी आदि के समान मूर्त नहीं अमूर्त हैं । जीव/आत्मा इनसे पृथक् तत्त्व है और उसका लक्षण चेतना है । वह स्वयं की सत्ता का अनुभव करता है और परपदार्थों का भी ज्ञायक
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