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सप्ततिका प्रकरण
बंधस्थान और उदयस्थान सर्वत्र एक प्रकृतिक होता है किन्तु सत्तास्थान दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिकः, इस प्रकार दो होते हैं।
वेदनीय कर्म के संवेध भंग इस प्रकार है--१. असाता का बंध, असाता का उदय और दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय और दोनों की सत्ता, २. साता का बंध, साता का उदय और दोनों की सत्ता और ४. साता का बंध, असाता का उदय और दोनों की सत्ता।
उक्त चार भग बंध रहते हुए होते हैं। इनमें से आदि के दो पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं । क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में असाता का बंधबिच्छेद हो जाने के आगे इसका बंध नहीं होता है। जिससे सातवें अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में आदि के दो भंग प्राप्त नहीं होते हैं। अंत के दो भंग अर्थात् तीसरा ओर चौथा भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं। क्योंकि साता वेदनीय का बंध तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान तक ही होता है। बंध का अभाव होने पर उदय व सत्ता की अपेक्षा निम्नलिखित चार भंग होते हैं
१. असाता का उदय और दोनों की सत्ता । २. साता का उदय और दोनों की सत्ता। ३. असाता का उदय और असाता की सत्ता । ४. साता का उदय और साता की सत्ता।
इनमें से आदि के दो भंग अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक होते हैं । क्योंकि अयोगिकेवली के द्विचरम समय तक दोनों की सत्ता पाई जाती है । अन्त के दो भंग-तीसरा और चौथा चरम समय में होता है । जिसके द्विचरम समय में साता का क्षय होता है उसके अन्तिम समय में तीसरा भंग-असाता का उदय, असाता की सत्ता-पाया जाता है तथा जिसके द्विचरम समय में असाता का क्षय
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