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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ : गाह शब्दार्थ-वेयणियाउयगोए-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के, विभज्ज-बंधादिस्थान और उनके संवेध भंग कहकर, मोह-मोहनीय कर्म के, परं--पश्चात्, वोच्छं--कथन करेंगे। ___ गाथार्थ-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के बंधादि स्थान और उनके संवैध भंग कहकर बाद में मोहनीय कर्म के बन्धादि स्थानों का कथन करेंगे। विशेषार्थ-गाथा में वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में विभाग करने की सूचना दी है, लेकिन किस कर्म के अपनी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा कितने बंधादि स्थान और उनके कितने संवेध भंग होते हैं, इसको नहीं बताया है। किन्तु टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इनके भंगों का विस्तृत विचार किया है । अतः टीका के अनुसार वेदनीय, आयु और गोत्र के भंगों को यहाँ प्रस्तुत करते हैं। वेदनीय कर्म के संवेध भंग __ वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-साता और असाता। ये दोनों प्रकृतियाँ परस्पर विरोधिनी हैं; अतः इनमें से एक काल में से किसी एक का बंध और किसी एक का उदय होता है। एक साथ दोनों का बंध और उदय संभव नहीं है । लेकिन किसी एक प्रकृति की सत्ता का विच्छेद होने तक सत्ता दोनों प्रकृतियों की पाई जाती है तथा किसी एक प्रकृति की सत्ता व्युच्छिन्न हो जाने पर किसी एक ही प्रकृति की सत्ता पाई जाती है ।1 अर्थात् वेदनीय कर्म का उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा १ तत्र वेदनीयस्य सामान्येनैकं बंधस्थानम्, तद्यथा-सातमसातं वा, द्वयोः परस्परविरुद्धत्वेन युगपद्बन्धाभावात् । उदयस्थानमपि एकम्, तद्यथासातमसातं वा, द्वयोगपदुदयाभावात् परस्परविरुद्धत्वात् । सत्तास्थाने द्वे, तद्यथा- एक च । तत्र यावदेकमन्यतरद् न क्षीयते तावद् द्वे अपि सती, अन्यतरस्मिश्च क्षीणे एकमिति । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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