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षष्ठ कर्मग्रन्थ : गा० ८
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किन्तु क्षीणमोह गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक का अभाव है, क्योंकि इनका क्षय क्षपक अनिवृत्तिकरण में हो जाता है तथा क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का भी क्षय हो जाता है, जिससे अन्तिम समय में चार प्रकृतियों की सत्ता रहती है । क्षपकश्रेणि में निद्रा आदि का उदय नहीं होता है । अतः यहाँ निम्नलिखित दो भंग होते हैं ।
१ - चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता । यह भंग क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय में पाया जाता है ।
२ - चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता । यह भंग क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है ।
इन दोनों भंगों का संकेत करने के लिए गाथा में कहा है- 'चउरुदय छच्च चउसंता' ।
दर्शनावरण कर्म के भंगों सम्बन्धी मतान्तर
यहां दर्शनावरण कर्म के उत्तर प्रकृतियों के ग्यारह संवेध भंग बतलाये हैं । उनमें निम्नलिखित तीन भंग भी सम्मिलित हैं
(१) चार प्रकृतिक बंध, चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक
सत्ता ।
(२) चार प्रकृतिक उदय और छह प्रकृतिक सत्ता । (३) चार प्रकृतिक उदय और चार प्रकृतिक सत्ता ।
इन तीनों भंगों में से पहला भंग क्षपकश्र ेणि के नौवें और दसवें अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय - गुणस्थान में होता है तथा दूसरा व तीसरा भंग क्षीणमोह गुणस्थान में होता है । इससे यह प्रतीत होता है - इस ग्रन्थ के कर्त्ता का यही मत रहा है कि क्षपकश्रेणि में निद्रा और प्रचला का उदय नहीं होता है । आचार्य मलयगिरि ने सप्ततिका प्रकरण की टीका में सत्कर्म ग्रन्थ का यह गाथांश उद्धृत किया हैनिद्ददुगस्स उदओ खीणगखवगे परिच्चज्ज |
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