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पारिभाषिक शब्द-कोष
कर्मवर्गणा स्कन्ध-जो पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप परिणत होते हैं। कर्मविधान-मिथ्यात्व आदि कारणों के द्वारा आत्मा के साथ होने वाले कर्मबंध.
के सम्बन्ध को कर्मविधान कहते हैं । कर्मशरीर-कर्मों का पिण्ड । कषाय-आत्मगुणों को कषे, नष्ट करे, अथवा जिसके द्वारा जन्म-मरण रूप
संसार की प्राप्ति हो अथवा जो सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र को न होने दे, वह कषाय कहलाती है।
कषाय मोहनीयकर्म के उदयजन्य, संसार-वृद्धि के कारणरूप मानसिक विकारों को कषाय कहते हैं ।
समभाव की मर्यादा को तोड़ना, चारित्र मोहनीय के उदय से क्षमा, विनय, संतोष आदि आत्मिक गुणों का प्रगट न होना या अल्पमात्रा में
प्रगट होना कषाय है। कषायरस नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर-रस आंवला, बहेड़ा
आदि जैसा कसैला हो। कषाय विजय-क्रोधादि कषायों के कारण उपस्थित होने पर भी उन्हें नहीं
होने देना। कषाय समुद्घात-क्रोधादि के निमित्त से होने वाला समुद्घात । कापोतलेश्या-कबूतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के लेश्याजातीय
पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के ऐसे परिणामों का होना कि जिससे मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में वक्रता ही वक्रता रहे, सरलता न रहे । दूसरों को कष्ट पहुँचे ऐसे भाषण करने की प्रवृत्ति, नास्तिकता रहे। इन परि
णामों को कापोतलेश्या कहा जाता है। . काय-जिसकी रचना और वृद्धि औदारिक, वैक्रिय आदि पुद्गल स्कन्धों से होती
है तथा जो शरीर नामकर्म के उदय से निष्पन्न होता है; अथवा जाति - नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने
वाली आत्मा की पर्याय को काय कहते हैं । काययोग--शरीरधारी आत्मा की शक्ति के व्यापार-विशेष को काययोग कहते
हैं; अथवा जिसमें आत्म-प्रदेशों का संकोच-विकोच हो उसे काय कहते हैं
और उसके द्वारा होने वाला योग काययोग कहलाता है । अथवा औदाJain Education International For Private & Personal Use Only
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