SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट-२ रिक आदि सात प्रकार के कायों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्यतः काय कहते हैं और उस काय से उत्पन्न हुए आत्म- प्रदेश परिस्पन्द लक्षण वीर्य (शक्ति) के द्वारा जो योग होता है. वह काययोग है कारक सम्यक्त्व -- जिनोक्त क्रियाओं - सामायिक, श्रुति श्रवण, गुरु-वंदन आदि को करना । कार्मणका - कर्मों के समूह अथवा कार्मणशरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले काय को कार्मणकाय कहते हैं । कार्मणका योग - कार्मणकाय के द्वारा होने वाला योग अर्थात् अन्य औदारिक आदि शरीर वर्गणाओं के बिना सिर्फ कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य (शक्ति) के निमित्त से आत्म- प्रदेश - परिस्पन्दन रूप प्रयत्न होना कार्मणकाययोग कहलाता है । कार्मणशरीर की सहायता से होने वाली आत्मशक्ति की प्रवृत्ति को कार्मणकाययोग कहते हैं । .२७ कार्मणशरीर - ज्ञानावरण आदि कर्मों से बना हुआ शरीर । कार्मणशरीर नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से जीव को कार्मण- शरीर की प्राप्ति हो । कार्मणकार्मणबंधन नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से कार्मणशरीर पुद्गलों का कार्मणशरीर पुद्गलों के साथ सम्बन्ध हो ! कार्मणशरीरबंधन नामकर्म - जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत कार्मणशरीर पुद्गलों के साथ गृह्यमाण कार्मणशरीर पुद्गलों का आपस में मेल हो । कार्मणसंघातन नामकर्म -- जिस कर्म के उदय से कार्मणशरीर रूप में परिणत पुद्गलों का परस्पर सान्निध्य हो । काल- अनुयोग द्वार -- जिसमें विवक्षित धर्म वाले जीवों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति का विचार किया जाता है । कोलिकासंहनन नामकर्म - जिस कर्म के उदय से हड्डियों की रचना में मर्कट बंध और वेठन न हो किन्तु कीली से हड्डियाँ जुड़ी हुई हों । कुब्जसंस्थान नामकर्म ---- जिस कर्म के उदय से शरीर कुबड़ा हो । कुमुद -- बौरासी लाख कुमुदांग के काल को कुमुद कहते हैं । कुमुदांग -- चौरासी लाख महाकमल का एक कुमुदांग होता है । कुशल कर्म -- जिसका विपाक इष्ट होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy