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________________ अपूर्ण, षष्ठ कर्मग्रन्थ ४५१ से इस ग्रंथ की रचना की है, लेकिन विशेष जिज्ञासुजन दृष्टिवाद अंग का अध्ययन करें, और उससे बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों के भेदप्रभेदों को समझें। यह सप्ततिका नामक ग्रन्थ तो उनके लिये मार्गदर्शक के समान हैं। अब ग्रंथ की प्रामाणिकता, आधार आदि का निर्देश करने के बाद ग्रंथकार अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ग्रंथ की समाप्ति के लिए गाथा कहते हैं जो जत्थ अपडिपुत्रो अत्थो अप्पागमेण बद्धोत्ति। तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु ॥७२॥ शब्दार्थ-जो-जिस, अत्य-जहां, अपरिपुम्नो- अपूर्ण, अत्यो---अर्थ, अप्पागमेण-~-अल्पश्रुत, आगम के अल्प ज्ञाता-मैंने, बयोति-निबद्ध किया है, तं-उसके लिये, खमिऊण-क्षमा करके, बहुसुया-बहुश्रुत, पूरेऊणं-परिपूर्ण करके, परिकहतु-भली प्रकार से प्रतिपादन करें। गाथार्थ-मैं तो आगम का अल्प ज्ञाता हैं, इसलिये मैंने जिस प्रकरण में जितना अपरिपूर्ण अर्थ निबद्ध किया है, वह मेरा दोष-प्रमाद है । अत: बहुश्रुत जन मेरे उस दोष-प्रमाद को क्षमा करके उस अर्थ की पूर्ति करने के साथ कथन करें। विशेषार्थ---गाथा में अपनी लघुता प्रगट करते हुए ग्रंथकार लिखते हैं कि मैं न तो विद्वान हूँ और न बहुश्रुत, किन्तु अल्पज्ञ हूँ। इसलिये यह दावा नहीं करता हूँ कि ग्रंथ सर्वांगीण रूप से विशेष अर्थ को प्रगट करने वाला बन सका है। इस ग्रंथ में जिस विषय को प्रतिपादन करने की धारणा की हुई थी, सम्भव है अपनी अल्पज्ञता के कारण उसको पूरी तरह से न निभा पाया होऊं तो इसके लिये मेरा प्रमाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org निबद्ध किया है, जत, आगम के अल्प
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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