SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० सप्ततिका प्रकरण प्राप्त होने वाली आत्मस्थिति का पूर्णरूपेण विवेचन किया जा चुका है। अत: अब ग्रंथकार ग्रंथ का उपसंहार करने के लिए गाथा कहते हैं कि दुरहिगम-निउण-परमत्थ-रुहर-बहुभंगविट्टिवायाओ। अत्था अणुसरियव्वा बंधोदयसंतकम्माणं ॥७॥ शब्दार्थ-तुरहिगम-अतिश्रम से जानने योग्य, निउणसूक्ष्म बुद्धिगम्य, परमत्थ-यथावस्थित अर्थवाला, सहर-रुचिकर, आह्लादकारी, बहुभंग-बहुत मंगवाला, विट्टिवायाओ-दृष्टिवाद अंग, अत्या-विशेष अर्थ वाला, अणुसरियव्या-जानने के लिये, बंधोदयसंतकम्माणं-बंध, उदय और सत्ता कर्म की। गाथार्य-दृष्टिवाद अंग अतिश्रम से जानने योग्य, सूक्ष्मबुद्धिगम्य, यथावस्थित अर्थ का प्रतिपादक, आह्लादकारी, बहुत भंग वाला है । जो बंध, उदय और सत्ता रूप कर्मों को विशेष रूप से जानना चाहते हैं, उन्हें यह सब इससे जानना चाहिये। विशेषार्थ-गाथा में ग्रंथ का उपसंहार करते हुए बतलाया है कि यह सप्ततिका ग्रंथ दृष्टिवाद अंग के आधार पर लिखा गया है। इस प्रकार से ग्रंथ की प्रामाणिकता का संकेत करने के बाद बतलाया है कि दृष्टिवाद अंग दुरभिगम्य है, सब इसको सरलता से नहीं समझ सकते हैं। लेकिन जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है, सूक्ष्म पदार्थ को जानने के लिये जिज्ञासु हैं, वे ही इसमें प्रवेश कर पाते हैं। दृष्टिवाद अंग को दुरभिगम्य बताने का कारण यह है कि यद्यपि इसमें यथावस्थित अर्थ का सुन्दरता से युक्तिपूर्वक प्रतिपादन किया गया है लेकिन अनेक भेदप्रभेद हैं, इसीलिये इसको कठिनता से जाना जाता है। इसका अपनी बुद्धि से मंथन करके जो कुछ भी ज्ञात किया जा सका उसके आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy