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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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___ सातवां विशेषण 'अनिहणं' -अनिधन है । इसका भाव यह है कि सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाने के बाद उसका कभी नाश नहीं होता है। उसके स्वाभाविक अनंतगुण सदा स्वभाव रूप से स्थिर रहते हैं, उनमें सुख भी एक गुण है, अतः उसका भी कभी नाश नहीं होता है। __ आठवां विशेषण है-'अव्वाबाह'-अव्याबाध । अर्थात् बाधारहित है उसमें किसी प्रकार का अन्तराल नहीं और न किसी के द्वारा उसमें रुकावट आती है। जो अन्य के निमित्त से होता है या अस्थायी होता है, उसी में बाधा उत्पन्न होती है। परन्तु सिद्ध जीवों का सुख न तो अन्य के निमित्त से ही उत्पन्न होता है और न थोड़े काल तक ही टिकने वाला है। वह तो आत्मा का अपना ही है और सदा-सर्वदा व्यक्त रहने वाला धर्म है । इसीलिये उसे अव्याबाध कहा है।
अन्तिम-नौवां विशेषण त्रिरत्नसार 'तिरयणसारं' है। यानी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह तीन रत्न हैं, जिन्हें रत्नत्रय कहते हैं । सिद्धों को प्राप्त होने वाला सुख उनका सारफल है। क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय कर्मक्षय का कारण है और कर्मक्षय के बाद सिद्ध सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिये सिद्धि सुख को रत्नत्रय का सार कहा गया है। संसारी जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना इसीलिये करता है कि उसे निराकुल अवस्था की प्राप्ति हो। सुख की अभिव्यक्ति निराकुलता में ही है। इसी कारण से सिद्धों को प्राप्त होने वाले सुख को रत्नत्रय का सार बताया है।
आत्मस्वरूप की प्राप्ति करना जीवमात्र का लक्ष्य है और उस स्वरूप प्राप्ति में बाधक कारण कर्म है। कर्मों का क्षय हो जाने के अनन्तर अन्य कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता है। ग्रंथ में कर्म की विभिन्न स्थितियों, उनके क्षय के उपाय और कर्म क्षय के पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only
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