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________________ सप्ततिका प्रकरण का सुख प्रधानभूत है और इसी बात को जगशिखर विशेषण द्वारा स्पष्ट किया गया है। चौथा विशेषण 'अरुय'-रोग रहित है। अर्थात् उस सुख में लेश मात्र भी व्याधि-रोग नहीं है। क्योंकि रोगादि दोषों की उत्पत्ति शरीर के निमित्त से होती है और जहाँ शरीर है वहाँ रोग की उत्पत्ति अवश्य होती है-'शरीरं व्याधिमंदिरम्'। लेकिन सिद्ध जीव शरीर रहित हैं, उनके शरीर प्राप्ति का निमित्तकरण कर्म भी दूर हो गया है, इसीलिये सिद्ध जीवों का सुख रोगादि दोषों से रहित है। सिद्ध जीवों के सुख के लिये पाँचवा विशेषण 'निरुवम' दिया है यानी उपमा रहित है। इसका कारण यह है कि उप अर्थात् उपर से या निकटता से जो माप करने की प्रक्रिया है, उसे उपमा कहते हैं । इसका भाव यह है प्रत्येक वस्तु के गुण, धर्म और उसकी पर्याय दूसरी वस्तु के गुण, धर्म और पर्याय से भिन्न हैं, अत: थोड़ी-बहुत समानता को देखकर दृष्टांत द्वारा उसका परिज्ञान कराने की प्रक्रिया को उपमा कहते हैं। परन्तु यह प्रक्रिया इन्द्रियगोचर पदार्थों में ही घटित हो सकती है और सिद्ध परमेष्ठी का सुख तो अतीन्द्रिय है, इसलिये उपमा द्वारा उसका परिज्ञान नहीं कराया जा सकता है। संसार में तत्सदृश ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उसे उपमा दी जा सके, इसलिये सिद्ध परमेष्ठि के सुख को अनुपम कहा है। छठा विशेषण स्वभावभूत 'सहाव' है। इसका आशय यह है कि संसारी सुख तो कोमल स्पर्श, सुस्वादु भोजन, वायुमण्डल को सुरभित करने वाले अनेक प्रकार के पुष्प, इत्र, तेल आदि के गंध, रमणीय रूप के अवलोकन, मधुर संगीत आदि के निमित्त से उत्पन्न होता है, ... लेकिन सिद्ध सुख की यह बात नहीं है, वह तो आत्मा का स्वभाव है, वह बाह्य इष्ट मनोज्ञ पदार्थों के संयोग से उत्पन्न नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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