SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ सप्ततिका प्रकरण क्रम गुणश्रेणि के अन्त तक चालू रहता है। इसके आगे अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर कम-कम दलिकों का निक्षेप करता है। यह क्रम द्विचरम स्थितिखंड के प्राप्त होने तक चालू रहता है। किन्तु द्विचरम स्थितिखंड से अन्तिम स्थितिखंड संख्यातगुणा बड़ा होता है। जब यह जीव सम्यक्त्व के अन्तिम स्थितिखंड की उत्कीरणा कर चुकता है तब उसे कृतकरण कहते हैं। इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से परभव सम्बन्धी आयु के अनुसार किसी भी गति में उत्पन्न होता है। इस समय यह शुक्ल लेश्या को छोड़कर अन्य लेश्याओं को भी प्राप्त होता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ मनुष्य ही करता है। किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियों में होती है। कहा भी है पट्ठवगो उ मणूसो, निद्र्वगो चउसु वि गईसु। दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारों गतियों में होती है। यदि बद्धायुष्क जीव क्षपकश्रेणि का प्रारम्भ करता है तो अनन्तानुबंधी चतुष्क का क्षय हो जाने के पश्चात उसका मरण होना भी सम्भव है। उस स्थिति में मिथ्यात्व का उदय हो जाने से यह जीव पुन: अनन्तानुबंधी का बंध और संक्रम द्वारा संचय करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनन्तानुबंधी की नियम से सत्ता पाई जाती है। किन्तु जिसने मिथ्यात्व का क्षय कर दिया है, वह पुनः अनन्तानुबंधी चतुष्क का संचय नहीं करता है। सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर जिसके परिणाम नहीं बदले वह मरकर नियम से देवों में उत्पन्न होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy