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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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है, किन्तु जिसके परिणाम बदल जाते हैं वह परिणामानुसार अन्य गतियों में भी उत्पन्न होता है ।
बद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता तो सात प्रकृतियों का क्षय होने पर वह वहीं ठहर जाता है, चारित्र मोहनीय के क्षय का यत्न नहीं करता है
बडाऊ पडिवन्नो, नियमा खीणम्मि सत्तए ठाइ । लेकिन जो बद्धायु जीव सात प्रकृतियों का क्षय करके देव या नारक होता है, वह नियम से तीसरी पर्याय में मोक्ष को प्राप्त करता है और जो मनुष्य या तिर्यंच होता है, वह असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों और तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, इसीलिये वह नियम से चौथे भव में मोक्ष को प्राप्त होता है। 3
यदि अबद्धायुष्क जीव क्षपकश्रेणि प्रारम्भ करता है तो वह सात प्रकृतियों का क्षय हो जाने पर चारित्रमोहनीयकर्म के क्षय करने का यत्न करता है। क्योंकि चारित्रमोहनीय की क्षपणा करने वाला मनुष्य अबद्धायु ही होता है, इसलिये उसके नरकायु, देवायु और तिर्यंचायु की सत्ता तो स्वभावत: ही नहीं पाई जाती है तथा अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक का क्षय पूर्वोक्त क्रम से हो जाता
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बद्धाऊ पडिवन्नो पढमसायक्खए जइ मरिज्जा । तो मिच्छत्तोदयओ चिणिज्ज भूयो न खीणम्मि । तम्मि मओ जाइ दिवं तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण पच्छा नाणामईगईओ ॥
--विशेषा० गा० १३१६-१७ २ विशेषा० गा० १३२५ ३ तइय चउत्थे तम्मि व भवम्मि सिझंति दसणे खीणे । जं देवनिरयऽसंखाउचरिमदेहेसु ते होंति ॥
-पंचसंग्रह गा० ७७६ ४ इयरो अणवरओ च्चिय, सयलं सढिं समाणेइ। -विशेषा० गा० १३२५
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