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षष्ठ कर्मग्रन्थ
४२३ तदनन्तर तीनों प्रकृतियों की स्थिति के एक भाग को छोड़कर शेष बहुभाग का घात करता है. तथा उसके बाद पुनः एक भाग को छोड़कर शेष बहुभाग का घात करता है। इस प्रकार इस क्रम से भी हजारों स्थितिखंडों का घात करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व की स्थिति के असंख्यात भागों का तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के संख्यात भागों का घात करता है। इस प्रकार प्रभूत स्थितिखंडों के व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्व के दलिक आवलिप्रमाण शेष रहते हैं तथा सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व के दलिक पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण शेष रहते हैं। उपर्युक्त इन स्थितिखंडों का घात करते समय मिथ्यात्व सम्बन्धी दलिकों का सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व में, सम्यगमिथ्यात्व सम्बन्धी दलिकों का सम्यक्त्व में और सम्यक्त्व सम्बन्धी दलिकों का अपने से कम स्थिति वाले दलिकों में निक्षेप किया जाता है । इस प्रकार जब मिथ्यात्व के एक आवलि प्रमाण दलिक शेष रहते हैं तब उनका भी स्तिबुकसंक्रम के द्वारा सम्यक्त्व में निक्षेप किया जाता है। तदनन्तर सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व के असंख्यात भागों का घात करता है और एक भाग शेष रहता है। तदनन्तर जो एक भाग बचता है, उसके असंख्यात भागों का घात करता है और एक भाग शेष रहता है। इस प्रकार इस क्रम से कितने ही स्थितिखंडों के व्यतीत हो जाने पर सम्यगमिथ्यात्व की भी एक आवलि प्रमाण और सम्यक्त्व की आठ वर्ष प्रमाण स्थिति शेष रहती है।
इसी समय यह जीव निश्चयनय की दृष्टि से दर्शन-मोहनीय का क्षपक माना जाता है। इसके बाद सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति खंड की उत्कीरणा करता है । उत्कीरणा करते समय दलिक का उदय समय से लेकर निक्षेप करता है। उदय समय में सबसे थोड़े दलिकों का निक्षेप करता है । दूसरे समय में असंख्यात गुणे दलिकों का, तीसरे समय में असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप करता है। इस प्रकार यह Jain Education International For Private & Personal Use Only
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