SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ ४०३ चूँकि यहाँ अनंतानुबंधी चतुष्क का अन्तरकरण करना है किन्तु उसका चौथे आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता है इसलिये इसके नीचे के आवलि प्रमाण दलिकों को छोड़कर ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है । अंतरकरण में अन्तर का अर्थ व्यवधान और करण का अर्थ क्रिया है । तदनुसार जिन प्रकृतियों का अन्तरकरण किया जाता है, उनके दलिकों की पंक्ति को मध्य से भंग कर दिया जाता है। इससे दलिकों की तीन अवस्थायें हो जाती हैं- प्रथमस्थिति, सान्तरस्थिति और उपरितम या द्वितीयस्थिति । प्रथमस्थिति का प्रमाण एक आवलि या एक अन्तर्मुहूर्त होता है । इसके बाद सान्तरस्थिति प्राप्त होती है । यह दलिकों से शून्य अवस्था है । इसका भी समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इसके बाद द्वितीयस्थिति प्राप्त होती है। इसका प्रमाण दलिकों की शेषस्थिति है । 000000000000 अवस्था ००००० अन्तरकरण करने से पहले दलिकों की पंक्ति इस प्रकार अविच्छिन्न रहती है किन्तु अन्तरकरण कर लेने पर उसकी इस प्रकार हो जाती है । यहाँ मध्य में जो रिक्तस्थान दिखता है, वहाँ के कुछ दलिकों को यथासंभव बंधने वाली अन्य सजातीय प्रकृतियों में मिला दिया जाता है । इस अंतर स्थान से नीचे (पहले) की स्थिति को प्रथमस्थिति और ऊपर ( बाद) की स्थिति को द्वितीयस्थिति कहते हैं । उदयवाली प्रकृतियों के अन्तरकरण करने का काल और प्रथमस्थिति का प्रमाण समान होता है किन्तु अनुदयवाली प्रकृतियों की प्रथमस्थिति के प्रमाण से अन्तरकरण करने का काल बहुत बड़ा होता है । अन्तरकरण क्रिया के चालू रहते हुए उदयवाली प्रकृतियों की प्रथम स्थिति का एक-एक दलिक उदय में आकर निर्जीर्ण होता जाता है और अनुदयवाली प्रकृतियों की प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ०००००००
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy