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सप्ततिका प्रकरण
करण में प्रविष्ट हुए जीवों के जिस प्रकार शरीर के आकार आदि में फरक दिखाई देता है, उस प्रकार उनके परिणामों में फरक नहीं होता है, यानी समान समय वाले एक साथ में चढ़े हुए जीवों के परिणाम समान ही होते हैं और भिन्न समय वाले जीवों के परिणाम सर्वथा भिन्न ही होते हैं । तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरण के पहले समय में जो जीव हैं, थे और होंगे, उन सबके परिणाम एक से ही होते हैं । दूसरे समय में जो जीव हैं, थे और होंगे, उनके भी परिणाम एकसे ही होते हैं । इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में भी समझना चाहिये | इसलिये अनिवृत्तिकरण के जितने समय हैं, उतने ही इसके परिणाम होते हैं, न्यूनाधिक नहीं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके प्रथम आदि समयों में जो विशुद्धि होती है, द्वितीय आदि समयों में वह उत्तरोत्तर अनंतगुणी होती है ।
अपूर्वकरण के स्थितिघात आदि पांचों कार्य अनिवृत्तिकरण में भी चालू रहते हैं ।" इसके अन्तर्मुहूर्त काल में से संख्यात भागों के बीत जाने पर जब एक भाग शेष रहता है तब अनंतानुबंधी चतुष्क के एक आवलि प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकों का अन्तरकरण किया जाता है । इस क्रिया को करने में न्यूनतम स्थितिबंध के काल के बराबर समय लगता है। यदि उदयवाली प्रकृतियों का अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और यदि अनुदयवाली प्रकृतियों का अन्तरकरण किया जाता है तो उनकी नीचे की स्थिति आवलि प्रमाण छोड़ दी जाती है ।
१ स्थितिघात आदि पाँचों कार्यों का विवरण अपूर्वकरण के प्रसंग में बताया जा चुका है, तदनुरूप यहाँ भी समझना चाहिये ।
२ एक आवलि या अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नीचे की और ऊपर की स्थिति को छोड़कर मध्य में से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकों को उठाकर उनका बँधने वाली' अन्य सजातीय प्रकृतियों में प्रक्षेप करने का नाम अन्तरकरण है ।
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