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________________ ४०४ सप्ततिका प्रकरण स्थिति के एक-एक दलिक का उदय में आने वाली सजातीय प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा संक्रम होता रहता है। यहाँ अनंतानुबंधी के उपशम का कथन कर रहे हैं किन्तु उसका उदय यहाँ नहीं है, अत: इसके प्रथमस्थितिगत प्रत्येक दलिक का भी स्तिबुकसंक्रमण द्वारा पर-प्रकृतियों में संक्रमण होता रहता है । इस प्रकार अन्तरकरण के हो जाने पर दूसरे समय में अनंतानुबंधी चतुष्क की द्वितीयस्थिति वाले दलिकों का उपशम किया जाता है । पहले समय में थोड़े दलिकों का उपशम किया जाता है। दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का, तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे दलिकों का प्रतिसमय उपशम किया जाता है। इतने समय में समस्त अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम हो जाता है । जिस प्रकार धूलि को पानी से सींच-सींच कर दुरमुट से कूट देने पर वह जम जाती है, उसी प्रकार कर्म रज भी विशुद्धि रूपी जल से सींच-सींच कर अनिवृत्ति करण रूपी दुरमुट के द्वारा कूट दिये जाने पर संक्रमण, उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य हो जाती है । इसी को अनंतानुबंधी का उपशम कहते हैं। लेकिन अन्य आचार्यों का मत है कि अनन्तानुबंधी चतुष्क का उपशम न होकर विसंयोजना ही होती है। विसंयोजना क्षपणा का १ कर्मप्रकृति ग्रन्थ में अनंतानुबंधी की उपशमना का स्पष्ट निषेध किया है वहाँ बताया है कि चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थानवर्ती यथायोग्य चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी चतुष्क का विसंयोजन करते हैं। किन्तु विसंयोजन करते समय न तो अन्तरकरण होता है और न अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम ही होता है__. “चउगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संयोजणे वियोति । करणेहिं तीहिं सहिया नंतरकरणं उसमो वा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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