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________________ सप्ततिका प्रकरण ३६८ ये हानि रूप छह स्थान हैं । वृद्धि की अपेक्षा छह स्थान इस प्रकार हैं - १. अनंत भागवृद्धि, २. असंख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात भागवृद्धि ४. संख्यात गुणवृद्धि, ५. असंख्यात गुणवृद्धि और ६. अनंत गुणवृद्धि । इन षड्स्थानों का आशय यह है कि जब हम एक जीव की अपेक्षा विचार करते हैं तब पहले समय के परिणामों से दूसरे समय के परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धि को लिये हुए प्राप्त होते हैं और जब नाना जीवों की अपेक्षा से विचार करते हैं तब एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं तथा यथाप्रवृत्तकरण के पहले समय में नाना जीवों की अपेक्षा जितने परिणाम होते हैं, उससे दूसरे समय के परिणाम विशेषाधिक होते हैं, दूसरे समय से तीसरे समय में और तीसरे समय से चौथे समय में इसी प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय तक विशेषाधिक- विशेषाधिक परिणाम होते हैं । इसमें भी पहले समय में जघन्य विशुद्धि सबसे थोड़ी होती है, उससे दूसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है, उससे तीसरे समय में जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है । इस प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग के प्राप्त होने तक यही क्रम चलता रहता है । पर यहाँ जो जघन्य विशुद्धि प्राप्त होती है, उससे पहले समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है । तदनन्तर पहले समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग के अगले समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है । पुनः इससे दूसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुणी होती है । पुनः उससे यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग के आगे दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुणी होती है । इस प्रकार यथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में जघन्य विशुद्धिस्थान के प्राप्त होने तक ऊपर और नीचे एक-एक विशुद्धिस्थान को अनंतगुणा करते जानना चाहिये, पर इसके आगे जितने विशुद्धिस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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