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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ अनंतानुबंधीचतुष्क की उपशमना के लिए वह जीव यथाप्रवृत्तकरण, ' अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के तीन करण करता है । यथाप्रवृत्तकरण में तो करण के पहले के समान अवस्था बनी रहती है । अपूर्वकरण में स्थितिबंध आदि बहुत-सी क्रियायें होने लगती हैं, इसलिये इसे अपूर्वकरण कहते हैं और अनिवृत्तिकरण में समान काल वालों की विशुद्धि समान होती है इसीलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । अब उक्त विषय को विशेष स्पष्ट करते हैं कि यथाप्रवृत्तकरण में प्रत्येक समय उत्तरोतर अनंतगुणी विशुद्धि होती है और शुभ प्रकृतियों का बंध आदि पूर्ववत् चालू रहता है । किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि यहाँ इनके योग्य विशुद्धि नहीं पाई जाती है और नाना जीवों की अपेक्षा इस करण में प्रति समय असंख्यात लोक प्रमाण परिणाम होते हैं जो छह स्थान पतित होते हैं । २ ३६७ -~ हानि और वृद्धि की अपेक्षा ये छह स्थान दो प्रकार के होते हैं१. अनंत भागहानि, २. असंख्यात भागहानि, ३ . संख्यात भागहानि ४. संख्यात गुणहानि, ५. असंख्यात गुणहानि, और ६. अनंत गुणहानि शुभा एवं बध्नाति, नाशुभाः । अशुभानां च प्रकृतीनामनुभागं चतुःस्थानकं सन्तं द्विस्थानकं करोति, शुभानां च द्विस्थानकं सन्तं चतुःस्थानकम् । स्थितिबन्धेऽपि च पुणे पूर्णे सति अन्यं स्थितिबन्धं पूर्वपूर्वस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमसंख्येय भागहीनं करोति । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २४६ १ यथोप्रवृत्तकरण का दूसरा नाम पूर्व प्रवृत्तकरण भी है, दिगम्बर परम्परा में यथाप्रवृत्तकरण को अधः प्रवृत्तकरण कहो गया है । २ न च स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणि गुणसंक्रमं वा करोति, तद्योग्यविशुद्ध्य भावात् । Jain Education International -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २४६ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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