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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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दन गुणस्थान में नहीं बँधने वाली १९ प्रकृतियों में इन २५+२=२७ प्रकृतियों को मिला देने पर ४६ प्रकृतियाँ होती हैं जिनका मिश्र गुणस्थान में बंध नहीं होता है। किन्तु १२० प्रकृतियों में से ४६ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही ७४ प्रकृतियों का बंध होता है।
चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ४३ प्रकृतियों के बिना शेष ७७ प्रकृतियों का बंध होता है-'अविरयसम्मो तियालपरिसेसा।' इसका कारण यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के मनुष्यायु, देवायु
और तीर्थंकर नाम, इन तीन प्रकृतियों का बंध सम्भव है। अत: यहाँ बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४६ न घटाकर ४३ प्रकृतियाँ ही घटाई हैं। इस प्रकार अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है।
देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान में ५३ के बिना ६७ प्रकृतियों का बंध बतलाया है- 'तेवण्ण देसविरओ'। इसका अर्थ यह है कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जिन दस . प्रकृतियों का बंध अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के होता है, अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने से उनका यहाँ बंध नहीं होता है। अत: चौथे गुणस्थान में कम की गई ४३ प्रकृतियों में १० प्रकृतियों को और जोड़ देने पर देशविरत गुणस्थान में बंध के अयोग्य ५३ प्रकृतियां हो जाती हैं और इनके अतिरिक्त शेष रहीं ६७ प्रकृतियों का बंध होता है।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से बंधने बाली १० प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं- अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वज्रऋषभनाराच संहनन ।
छठे प्रमत्तविरत गुणस्थान में ५७ के बिना ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। इसका आशय यह है कि प्रत्याख्यानावरण के उदय से जिन Jain Education International For Private & Personal Use Only
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