SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ सप्ततिका प्रकरण प्रत्याख्यानावरणचतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) का बंध देता. विरत गुणस्थान तक होता था, उनका प्रमत्तविरत गुणस्थान में बंध नहीं होता है। अत: जिन ५३ प्रकृतियों को देशविरत गुणस्थान में बंधने के अयोग्य बतलाया है, उनमें इन चार प्रकतियों के और मिल देने पर प्रमत्तविरत गुणस्थान में ५७ प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य होत हैं-'विरओ सगवण्णसेसाओ।' इसलिये प्रमत्तविरत गुणस्थान में ६३ प्रकृतियों का बंध होता है। अब आगे की गाथा में सातवें और आठवें गुगुणस्थान में बंध प्रकृतियों की संख्या का निर्देश करते हैं। इगृसठिमप्पमत्तो बंधइ देवाउयस्स इयरो वि । अट्ठावण्णमपुत्वो छप्पण्णं वा वि छव्वीसं ॥५८॥ शब्दार्थ--इगुसद्धि-उनसठ प्रकृतियों के, अप्पमत्तो-~~-अप्रमत्तसंयत, बंधा-बंध करता है, देवाउयस्स---देवायु का बंधक, इयरोकि - अप्रमत्त भी, अट्ठावणं-- अट्ठावन, अपुरखो--- अपूर्वकरण गुणस्थान वाला, छप्पण्णं---छप्पन, वा वि-~-अथवा भी, छठवीस-~-छब्बीस । __गाथार्थ-अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव उनसठ प्रकृतियों का बंध करता है। यह देवायु का भी बंध करता है। अपूर्वकरण गुणस्थान वाला अट्ठावन, छप्पन अथवा छब्बीस प्रकृतियों का बंध करता है। विशेषार्थ-इस गाथा में सातवें अप्रमत्तसंयत और आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है। लेकिन यहां कथन शैली की यह विशेषता है कि पिछली गाथाओं में तो किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है---इसको मुख्य मानकर बंध प्रकृतियाँ बतलाई थीं किन्तु इस गाथा से उस क्रम को बदल कर यह बतलाया है कि किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy