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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान हैं। इनमें से देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के २८ प्रकृतिक बंधस्थान होता है । अविरत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य शेष गतियों के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते, इसलिये यहाँ नरकगति के योग्य २८ प्रकृतिक बंथस्थान नहीं होता है।
२६ प्रकृतिक बंधस्थान दो प्रकार से प्राप्त होता है। एक तो तीर्थंकर प्रकृति के साथ देवगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले मनुष्यों के होता है । इसके ८ भंग होते हैं। दूसरा मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले देव और नारकों के होता है। यहाँ भी आठ भंग होते हैं। तीर्थकर प्रकृति के साथ मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले देव और नारकों के ३० प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इसके भी आठ भंग होते हैं।
अब आठ उदयस्थानों को बतलाते हैं कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक, ये ८ उदयस्थान हैं। __ इनमें से २१ प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के जानना चाहिये। क्योंकि जिसने आयुकर्म के बंध के पश्चात् क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है, उसके चारों गतियों में २१ प्रकृतिक उदयस्थान संभव है। किन्तु अविरत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तों में उत्पन्न नहीं होता अत: यहाँ अपर्याप्त संबंधी भंगों को छोड़कर शेष भंग
१ मनुष्याणां देवगतिप्रायोग्यं तीर्थकरसहितं बघ्नतामेकोनत्रिंशत्, अत्राप्यष्टो
भंगाः। देव-नरयिकाणां मनुष्यगतिप्रायोग्यं बध्नतामेकोनत्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टौ मंगाः । तेषामेव मनुष्यगतिप्रायोग्यं तीर्थकरसहितं बघ्नतां त्रिंशत्, अत्रापि त एवाष्टो मंगाः ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org