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________________ सप्ततिका प्रकरण पाये जाते हैं जो तिर्यंच पंचेन्द्रिय के ८, मनुष्यों के ८, देवों के ८ और नारकों का १ है । इस प्रकार कुल मिलाकर ८+८+८+१=२५ हैं। - २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देव और नारकों तथा विक्रिया करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के जानना चाहिये । यहाँ जो २५ और २७ प्रकृतिक स्थानों का नारक और देवों को स्वामी बतलाया है सो यह नारक वेदक सम्यग्दृष्टि या क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही होता है और देव तीनों में से किसी भी सम्यग्दर्शन वाला होता है।' चूणि में भी इसी प्रकार कहा है पणवीस-सत्तबीसोदया देवनेरइए विउवियतिरिय मणुए य पडुच्च । नेरइगो खइग-वेयगसम्मट्ठिी देवो तिविहसम्मट्ठिी वि ॥ अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान देव, नारक और विक्रिया करने वाले तिर्यंच और मनुष्यों के होता है । सो इनमें से ऐसा नारक या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है या वेदक सम्यग्दृष्टि, किन्तु देव के तीनों सम्यग्दर्शनों में से कोई एक होता है। २६ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्यों के होता है। औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्नं नहीं होता है। अतः यहाँ तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टि जीवों को नहीं कहा है। उसमें भी तिर्यंचों के मोहनीय की २२ प्रकृतियों की सत्ता की अपेक्षा ही यहाँ वेदक सम्यक्त्व जानना चाहिये। १ पंचविंशति-सप्तविंशत्युदयौ देव-नैरयिकान् वैक्रियतिर्यङ्मनुष्यांश्चाधिकृत्यावसेयौ। तत्र नैरयिकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्वेदकसम्यग्दृष्टिर्वा, देवस्त्रिविधसम्यग्दृष्टिरपि । -सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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