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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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इस प्रकार गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के उदयस्थानों व उनके भङ्गों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में उपयोग आदि की अपेक्षा भङ्गों का निर्देश करते हैं
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योग, उपयोग और लेश्याओं में भंग
जोगोवओगलेसाइएहि गुणिया हवंति कायध्वा ।
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जे जत्थ गुणट्ठाणे हवंति ते तत्थ गुणकारा ॥४७॥ शब्दार्थ -- जोगोवओगले साइएहि —योग, उपयोग और लेश्यादिक से, गुणिया - गुणा, हवंति — होते हैं, कायश्वा- -करना चाहिये, जे - जो योगादि, जत्थ गुणट्ठाणे - जिस गुणस्थान में, हवंति — होते हैं, ते उतने, तत्थ - उसमें, गुणकारा - गुणकार संख्या ।
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गाथार्थ - पूर्वोक्त उदयभङ्गों को, योग, उपयोग और लेश्या आदि से गुणा करना चाहिये । इसके लिये जिस गुणस्थान में जितने योगादि हों वहाँ उतने गुणकार संख्या होती है ।
विशेषार्थ --- गुणस्थान में मोहनीय कर्म के वृन्दों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है उपयोग और लेश्याओं की अपेक्षा उनकी
।
कि वह संख्या कितनी - कितनी होती है ।
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(ख) उदयद्वाणं पर्याड गुणयित्ता मेलविदे
तुलना कीजिये
(क) एवं जोगुवओगा लेसाई भेयओ बहूमेया । जा जस्स जंमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो ||
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उदयविकल्पों और पद
अब इस गाथा में योग, संख्या का कथन करते हैं
- पंचसंग्रह सप्ततिका गा० ११७
सगसगउवजोगजोगआदीहि । पदसंखा पयडिसंखा य ॥
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- गो० कर्मकांड गा० ४६० www.jainelibrary.org
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