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________________ षष्ठ कर्मग्रन्थ २८३ इस प्रकार गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीयकर्म के उदयस्थानों व उनके भङ्गों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में उपयोग आदि की अपेक्षा भङ्गों का निर्देश करते हैं -- योग, उपयोग और लेश्याओं में भंग जोगोवओगलेसाइएहि गुणिया हवंति कायध्वा । ૧ जे जत्थ गुणट्ठाणे हवंति ते तत्थ गुणकारा ॥४७॥ शब्दार्थ -- जोगोवओगले साइएहि —योग, उपयोग और लेश्यादिक से, गुणिया - गुणा, हवंति — होते हैं, कायश्वा- -करना चाहिये, जे - जो योगादि, जत्थ गुणट्ठाणे - जिस गुणस्थान में, हवंति — होते हैं, ते उतने, तत्थ - उसमें, गुणकारा - गुणकार संख्या । - गाथार्थ - पूर्वोक्त उदयभङ्गों को, योग, उपयोग और लेश्या आदि से गुणा करना चाहिये । इसके लिये जिस गुणस्थान में जितने योगादि हों वहाँ उतने गुणकार संख्या होती है । विशेषार्थ --- गुणस्थान में मोहनीय कर्म के वृन्दों का निर्देश पूर्व में किया जा चुका है उपयोग और लेश्याओं की अपेक्षा उनकी । कि वह संख्या कितनी - कितनी होती है । १ (ख) उदयद्वाणं पर्याड गुणयित्ता मेलविदे तुलना कीजिये (क) एवं जोगुवओगा लेसाई भेयओ बहूमेया । जा जस्स जंमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो || Jain Education International - उदयविकल्पों और पद अब इस गाथा में योग, संख्या का कथन करते हैं - पंचसंग्रह सप्ततिका गा० ११७ सगसगउवजोगजोगआदीहि । पदसंखा पयडिसंखा य ॥ --- - गो० कर्मकांड गा० ४६० www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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