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________________ सप्ततिका प्रकरण गुणस्थानों में योग आदि की अपेक्षा उदयविकल्पों और पदवृन्दों की संख्या जानने के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि जिस गुणस्थान में योगादिक की जितनी संख्या है उसमें उस गुणस्थान के उदयविकल्प और पदवृन्दों को गुणित कर देने पर योगादि की अपेक्षा प्रत्येक गुणस्थान में उदयविकल्प और पदवृन्द की संख्या ज्ञात हो जाती है। अतः यह जानना जरूरी है कि किस गुणस्थान में कितने योग आदि हैं । परन्तु इनका एक साथ कथन करना अशक्य होने से क्रमशः योग, उपयोग और लेश्या की अपेक्षा विचार करते हैं । योग की अपेक्षा भंगों का विचार इस प्रकार है -- मिथ्यात्व गुणस्थान में १३ योग और भंगों की आठ चौबीसी होती हैं। इनमें से चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक और वैक्रिय काययोग इन दस योगों में से प्रत्येक में भंगों की आठ-आठ चौबीसी होती हैं, जिससे १० को ८ से गुणित कर देने पर ८० चौबीसी हुईं। किन्तु औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रयमिश्र काययोग और कार्मण काययोग इन तीन योगों में से प्रत्येक में अनन्तानुबन्धी के उदय सहित वाली चार-चार चौबीसी होती हैं । इसका कारण यह है कि अनन्तानुबंधी चतुष्क की विसंयोजना करने पर जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है, उसको जब तक अनन्तानुबंधी का उदय नहीं होता तब तक मरण नहीं होता । अत: इन तीन योगों में अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित चार चौबीसी सम्भव नहीं हैं । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिसने अनन्तानुबंधी की विसंयोजना की है, ऐसा जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तब उसके अनन्तानुबंधी का उदय एक आवली काल के बाद होता है, ऐसे जीव का अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर ही मरण होता है, पहले नहीं । जिससे उक्त तीनों योगों में अनन्तानुबन्धी के उदय से रहित चार चौबीसी नहीं पाई जाती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org २८४
SR No.001897
Book TitleKarmagrantha Part 6 Sapttika
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorShreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1989
Total Pages584
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size8 MB
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