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पष्ठ कर्मग्रन्थ
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बंधस्थान में दो भंग बतलाये हैं वे प्रमत्तसंयत गुणस्थान की अपेक्षा कहे गये हैं । "
'पंचानियाट्टठाणे' आठवें गुणस्थान के अनन्तर नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गुणस्थान में ५, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक ये पाँच बंधस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि नौवें गुणस्थान के पाँच भाग हैं और प्रत्येक भाग में क्रम से मोहनीय कर्म की एक -एक प्रकृति का बंधविच्छेद होने से पहले भाग में ५, दूसरे भाग में ४, तीसरे भाग में ३, चौथे भाग में २ और पाँचवें भाग में १ प्रकृतिक बंधस्थान होने से नौवें गुणस्थान में पाँच बंधस्थान माने हैं। इसके बाद सूक्ष्मसंपराय आदि आगे के गुणस्थानों में बंध का अभाव हो जाने से बंधस्थान का निषेध किया है ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि आदि के आठ गुणस्थानों में से प्रत्येक में एक-एक बंधस्थान है । नौवें गुणस्थान में पाँच बंधस्थान हैं तथा उसके बाद दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के बंध का अभाव होने से कोई भी बंधस्थान नहीं है ।
इस प्रकार से गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का निर्देश करने के बाद अब आगे तीन गाथाओं में उदयस्थानों का कथन करते हैं ।
१ केवलमप्रमत्तापूर्वकरणयोर्भग एकैक एक वक्तव्यः, अरतिशोकयोर्बन्धस्य प्रमत्तगुणस्थान के एवं व्य-च्छेदात् । प्राक् च प्रमत्तापेक्षया नवकबंधस्थाने द्वौ भंगो दर्शितो | सप्ततिका प्रकरण टीका पृ०, २११
२ तुलना कीजिए
(क) मिच्छे सगाइचउरो सासणमीसे सगाइ तिष्णुदया । छप्पंच चउरपुव्वा तिअ चउरो अविरयाईणं ॥
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-- पंचसंग्रह सप्ततिका गा० २६
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