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सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ - गुणठाणगेसु-गुणस्थानों में अट्ठसु-आठ में, एक्क्कं - एक-एक, मोहबंधठाणेसु - मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से, पंच-पाँच, अनियट्टिठाणे - अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में, बंधोवरमो - बंध का अभाव है, परं—आगे, तत्तो- उससे ( अनिवृत्ति बादर गुणस्थान से ) ।
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गाथार्थ - मिथ्यात्व आदि आठ गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से एक, एक बंधस्थान होता है तथा अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में पाँच और अनन्तर आगे के गुणस्थानों में बंध का अभाव है ।
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विशेषार्थ - इस गाथा में मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों में से बंधस्थानों को बतलाया है। सामान्य से मोहनीय कर्म के बंधस्थान पहले बताये जा चुके हैं, जो २२,२१,१७,१३, ६, ५, ४, ३, २, १ प्रकृतिक हैं । इन दस स्थानों को गुणस्थानों में घटाते हैं ।
'गुणठाणगेसु अट्ठसु एक्केक्कं' अर्थात् पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में मोहनीय कर्म का एक-एक बंधस्थान होता है। वह इस प्रकार जानना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों में एक २२ प्रकृतिक, सासादान गुणस्थान में २१ प्रकृतिक, मिश्र गुणस्थान और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में १७ प्रकृतिक, देशविरति में १३ प्रकृतिक तथा प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण में है प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इनके भंगों का विवरण मोहनीय कर्म के बंधस्थानों के प्रकरण में कहे गये अनुसार जानना चाहिए, लेकिन यहाँ इतनी विशेषता है कि अरति और शोक का बंधविच्छेद प्रमत्तसंयत गुणस्थान में हो जाता है अत: अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में नौ प्रकृतिक बंधस्थान में एक-एक ही भंग प्राप्त होता है । पहले जो नौ प्रकृतिक
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