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सप्ततिका प्रकरण
हुआ
गुणस्थानों में एक उच्चगोत्र का ही बंध होता है । इसका यह अर्थ कि मिथ्यात्व गुणस्थान के समान सासादन गुणस्थान में भी किसी एक का बंध किसी एक का उदय और दोनों की सत्ता बन जाती है । इस हिसाब से यहाँ चार भंग पाये जाते हैं और वे चार भाग वही हैं जिनका मिथ्यात्व गुणस्थान के भंग १, २, २ और ४ में उल्लेख किया गया है ।
'दो तिसु' अर्थात् तीसरे, चौथे, पांचवें - मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरति गुणस्थानों में दो भंग होते हैं। क्योंकि तीसरे से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक बंध एक उच्च गोत्र का ही होता है किन्तु उदय और सत्ता दोनों की पाई जाती है । इसलिये इन तीन गुणस्थानों में१. उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च-नीच की सत्ता, तथा २. उच्च का बंध, नीच का उदय और नीच उच्च की सत्ता, यह दो भंग पाये जाते हैं। यहां कितने ही आचार्यों का यह भी अभिमत है कि पांचवे गुणस्थान में उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च-नीच की सत्ता यही एक भंग होता है। इस विषय में आगम वचन है कि
सामन्नेणं वयजाईए उच्चागोयस्स उदओ होइ ।
अर्थात् -- सामान्य से संयत और संयतासंयत जाति वाले जीवों के उच्च गोत्र का उदय होता है ।
'एगsसु' - यानी छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर आठ गुणस्थानों में से प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग प्राप्त होता है। क्योंकि छठे से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक ही उच्च गोत्र का बंध होता है। अतः छठे, सातवें, आठवें, नौवें दसवें - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति बादर और सूक्ष्मसंपराय - गुणस्थानों में से प्रत्येक में उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च
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