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षष्ठ कर्मग्रन्थ
२६५ नीच की सत्ता यह एक भंग प्राप्त होता है तथा दसवें गुणस्थान में उच्च गोत्र का बंधविच्छेद हो जाने से ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवेंउपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थान में उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच की सत्ता, यह एक भंग प्राप्त होता है। इस प्रकार छठे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग प्राप्त होता है, यह सिद्ध हुआ। ___'दोण्णि एक्कम्मि'-शेष रहे एक चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में दो भंग होते हैं। इसका कारण यह है कि अयोगिकेवली गुणस्थान में नीच गोत्र की सत्ता उपान्त्य समय तक ही होती है क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में यह उदयरूप प्रकृति न होने से उपान्त्य समय में ही इसका स्तिबुक संक्रमण के द्वारा उच्च गोत्र रूप से परिणमन हो जाता है, अतः इस गुणस्थान के उपान्त्य समय तक उच्च का उदय और उच्चनीच की सत्ता, यह एक भंग तथा अन्त समय में उच्च का उदय और उच्च की सत्ता, यह दूसरा भंग होता है। इस प्रकार चौदहवें गुणस्थान में दो भंगों का विधान जानना चाहिए।
गुणस्थानों में वेदनीय और गोत्र कर्मों के भंगों का विवेचन करने के बाद अब आयुकर्म के भंगों का विचार भाष्य गाथा के आधार से करते हैं। इस सम्बन्धी गाथा निम्न प्रकार है
अदृच्छाहिगवीसा सोलस वीसं च बार छ दोषु ।
वो घउसु तीसु एक्कं मिच्छाइसु आउगे भंगा॥ अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, सासादन में २६, मिश्र में १६, अविरत सम्यग्दृष्टि में २०, देशविरत में १२, प्रमत्त और अप्रमत्त में ६, अपूर्वकरण आदि चार में २ और क्षीणमोह आदि में १, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में आयुकर्म के भंग जानना चाहिए। जिनका विशेष स्पष्टीकरण निम्न प्रकार हैJain Education International For Private & Personal Use Only
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