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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
सत्ता दोनों की होती है और दूसरी विशेषता यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के उच्चगोत्र की उवलना होने पर बंध, उदय और सत्ता नीच गोत्र की ही होती है, तथा जिनमें ऐसे अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उत्पन्न होते हैं, उनके भी कुछ काल तक बंध, उदय और सत्ता नीच गोत्र की होती है । इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखकर मिथ्यात्व गुणस्थान में गोत्रकर्म के भंगों का विचार करते हैं तो पांच भंग प्राप्त होते हैं - 'गोए पण' । वे पाँच भंग इस प्रकार हैं
१. नीच का बंध, नीच का उदय तथा नीच और उच्च गोत्र की सत्ता
२. नीच का बंध, उच्च का उदय तथा नीच और उच्च की सत्ता ।
३. उच्च का बंध, उच्च का उदय और उच्च व नीच की सत्ता ४. उच्च का बंध, नीच का उदय तथा उच्च व नीच की सत्ता । ५. नीच का बंध, नीच का उदय और नीच की सत्ता ।
उक्त पाँच भंगों में से पाँचवां भंग-नीच गोत्र का बंध, उदय और सत्ता-अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों तथा उन जीवों में भी कुछ काल के लिए प्राप्त होता है जो अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में से आकर जन्म लेते हैं । शेष मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीवों के पहले चार विकल्प प्राप्त होते हैं ।
सासादन गुणस्थान में चार भंग प्राप्त होते हैं। क्योंकि नीच गोत्र का बंघ सासादन गुणस्थान तक ही होता है और मिश्र आदि
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१ नीचैर्गोत्रस्य बन्धः नीचैर्गोत्रस्योदयः नीचैर्गोत्रं सत्, एष विकल्पस्तेजस्कायिक- वायुकायिकेषु लभ्यते, तद्भवादुवृत्ते षु वा शेषजीवेषु कियत्कालम् । -- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० २०६
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