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यह भी सम्भव है कि इनके संकलनकर्ता एक ही आचार्य हों और इनका संकलन विभिन्न दो आधारों से किया गया हो । कुछ भी हो, किन्तु उक्त आधार से तत्काल ही सप्ततिका के कर्ता शिवशर्म आचार्य हों, ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार सप्ततिका के कर्ता कौन हैं, आचार्य शिवशर्म हैं या आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर हैं अथवा अन्य कोई महानुभाव हैं - निश्चयपूर्वक कहना कठिन है । परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि कोई भी इसके कर्ता हों, ग्रन्थ महत्वपूर्ण है और इसी कारण अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस पर भाष्य, अन्तर्भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि लिखकर ग्रंथ के हार्द को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । सप्ततिका की टीकाओं आदि का संकेत आगे किया जा रहा है ।
रचना काल
ग्रंथकर्ता और रचनाकाल - ये दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं । एक का निर्णय हो जाने पर दूसरे के निर्णय करने में सरलता होती है । पूर्व में ग्रंथकर्ता का निर्देश करते समय यह सम्भावना अवश्य प्रगट की गई है कि या तो आचार्य शिवशर्म सूरि ने इसकी रचना की है या इसके पहले लिखा गया हो । साधारणतया आचार्य शिवशर्म सूरि का काल विक्रम की पांचवीं शताब्दि माना गया है । इस हिसाब से विचार करने पर इसका रचनाकाल विक्रम की पांचवीं या इससे पूर्ववर्ती काल सिद्ध होता है । श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने अपनी विशेषणवती में अनेक स्थानों पर सप्ततिका का उल्लेख किया है और श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का समय विक्रम की सातवीं शताब्दी निश्चित है | अतएव पूर्वोक्त काल यदि अनुमानित ही मान लिया जाए तो यह निश्चित है कि सप्ततिका की रचना सातवीं शताब्दी से पूर्व हो गई थी ।.
इसके अलावा रचनाकाल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं है । इतना ही कहा जा सकता है कि सप्त
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