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को दृष्टिवाद अंग की एक बूंद के समान बतलाया है, वैसे ही शतक की गाथा १०४ में उसे कर्मप्रवाद श्रतरूपी सागर की एक बूँद के समान बतलाया गया है, जैसे सप्ततिका की अन्तिम गाथा में ग्रन्थकर्ता अपनी लघुता को प्रगट करते हुए संकेत करते हैं कि मुझ अल्पज्ञ नेत्रुटि रूप में जो कुछ भी निबद्ध किया है, उसे बहुश्रुत जानकर पूरा करके कथन करें । वैसे ही शतक की १०५वीं गाथा में भो निर्देशित करते हैं कि अल्पश्रुत वाले अल्पज्ञ मैंने जो कुछ भी बन्धविधान का सार कहा है, उसे बन्धमोक्ष की विधि में निपुण जन पूरा करके कथन करें ।
इसके अतिरिक्त उक्त गाथाओं में णिस्संद, अप्पागम, अप्पसुयमंदमइ, पूरेऊणं, परिकहंतु - ये पद भी ध्यान देने योग्य हैं ।
इन दोनों ग्रन्थों में यह समानता अनायास ही नहीं है । ऐसी समानता उन्हीं ग्रन्थों में देखने को मिलती है या मिल सकती है, जो एक कर्तृक हों या एक-दूसरे के आधार से लिखे गये हों। इससे यह फलितार्थ निकलता है कि बहुत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका एक ही आचार्य की कृति हों । शतक की चूर्णि में आचार्य शिवशर्म को उसका कर्ता बतलाया है । ये वे ही आचार्य शिवशर्म हो सकते हैं, जो कर्मप्रकृति, के कर्ता माने गये हैं । इस प्रकार विचार करने पर कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका - इन तीनों ग्रन्थों के एक ही कर्ता सिद्ध होते हैं ।
लेकिन जब कर्मप्रकृति और सप्ततिका का मिलाने करते हैं, तब दोनों की रचना एक आचार्य के द्वारा की गई हो, यह प्रमाणित नहीं होता है । क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में विरुद्ध दो मतों का प्रतिपादन किया गया है । जैसे कि सप्ततिका में अनन्तानुबन्धी चतुष्क को उपशम प्रकृति बतलाया है, किन्तु कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरण में अनन्ताबन्धी चतुष्क की उपशम विधि और अन्तरकरण विधि का निषेध किया है । अतएव सप्ततिका के कर्ता के बारे में निश्चय करना असम्भव-सा प्रतीत होता है ।
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